Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ १२, बर्ष ४२, कि.. अनेकान्त ........"उन दिनों में आर्य समाजी टाइप डंडा अपने साथ किया। ब० सीतलप्रसाद जी तो अध्यात्म क्षेत्र में भी रखता था, लपक कर उसे उठा लिया और आवेश भरे इतना दे गये जितना देना अन्य को सरल नहीं। उन्होंने स्वर में बोला-ब्रह्मचारी जी, आप पाख्यान देना कठिन-पागम भी सरल करके जनता को दिए जो प्राज प्रारम्भ कर दें, देखें कौन माई का ला.: आप तक बढ़ना भी उनकी गौरव-गाथा गा रहे हैं। श्री अर्जुनलाल सेठी है। ब्रह्मचारी जी मिहर से गए, बोले-भाई शान्त रहो, सा० की धार्मिक बढ़ता तो उनके ७० उपवासों से ही मेरा ब्याख्यान करा दो, फिर चाहे मेरा कोई प्राण ही स्पष्ट है कि-उन दिनों उनका श्रद्धान और प्राचरण निकाल दे।' कैसा जैनधर्म परक था। खेद है कि इस पर भी अहिंसा, 'यह ऐसी आंधी का बवण्डर था कि इसमें पुलिस उपगूहन और स्थितिकरण का नारा देने वाले कुछ जैनियों की वछियो का सामना करने वाले जैन कांग्रेसी भी इन ने इनके साथ जैसा सलूक किया, वह उस समाज को तत्अहिंसको की सभा में बोलने का साहस न कर सके। कालीन मनोवृत्ति को धब्बा लगाने को काफी है। क्या, वैरिष्टर चम्पतराय जी और साहित्यरत्न ५० दरबारी तिरस्कार के सिवाय तब अन्य कोई उपाय नहीं था? लाल जी जैसे प्रखर और निर्भीक विद्वान साहस बटोर कहावत है कि 'कंकरी के चोर को कटार नहीं मारना कर गए भी पर व्यर्थ । उन्हे भी तिरस्कृत किया गया, चाहिए'-यदि कुछ समाज की दृष्टि से इनमें कोई दोष बेचारे मुंह लटकाये चले आए। सीतल प्रसाद को ब्रह्मचारी प्रतिभासित हुए हों, तब भी शास्त्र के इस वाक्य को तो न कहा जाय, उमे आहार न दिया जाय, धर्म स्थानों मे याद रखना ही चाहिए था कि-'जो एक दोष सुन लीजे। न घसने दिया जाय, उसे जैन संस्थाओ से निकाल दिया ताको प्रभु दण्डन दीजे।'--पार्श्वपुराण जाय, उसका व्याख्यान न होने दिया जाय, उसके लिखने नारा तो हम देते हैं-'अहिंसा परमो धर्म:' और और बोलने के सब साधन समाप्त कर दिए जाय । यही ___ क्षमा वीरस्य भूषणम्' का। पर, कर्मठों के अपमान के उस समय के जैन धर्मोपयोगी नारे उस संघ ने तजबीज समय तब ये नारे कहाँ चले गए थे जो अाज परिग्रह को किए थे।' साथ लिए उभरते दिखाई दे रहे हैं ? अाज तो समाज में ब्रह्मचारी जी की मृत्यु पर पत्रों ने आँसू बहाए, शोक खुले आम सभी पांचों ही पाप स्पष्ट घर किए जैसे दिखते सभाएं भी हुई । शीतल-होस्टल, शीतल वीर सेवा मन्दिर हैं, फिर भी कोई किसी के कार्य तक का बहिष्कार नहीं और शीतल-ग्रन्थमाला की योजनाएं भी कुछ दिनो बड़ी कर रहा-सभी क्षमा धारण किए है। गहरी नजर से सरगर्मी से चली, पर आखिर, सब सीतल-स्मारक शीतल देखेंगे तो शायव प्रापको सार्वजनिक संस्थानों में, सभामों होकर रह गये।' में, मंचों पर और यहां तक कि जैन नाम के गली-कूचों "बोह पल को पं आ ही गया बन के आंसू । तक में भी पाप करने वाले ऐसे लोग तनकर खड़े दिखाई जबां पर न हम ला सके जो फसाना ॥"-सहवाई दे जाएंगे। शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र बाकी हो जहाँ इनकी -स्व० श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीय घस-पंठ न हो। ये हर जगह विद्यमान हैं-कहीं पैसे के (भा० ज्ञानपीठ प्रकाशन 'जैन जागरण के अग्रदूत' से) साथ, कहीं ज्ञान के मद को लिए, कहीं पत्र पत्रिका या किसी सस्था या प्रान्दोलन के चालक होकर। तरह-तरह सम्पादकीय नोट-जैनधर्म में हिंसा, झूठ, चोरी के वेष धारिय र के वेष धारियों में भी इनकी संख्या कम नहीं होगी। फिर प्रादि को पाप कहा है और इसके करने वाले को पापी। भी आश्चर्य है कि प्राज समाज ऐसों के बहिष्कार के उक्त दोनों हस्तियों के उक्त स्व-जीवन में ऐसा कछ नहीं प्रति मौन क्यों है ? समाज तब भी थी पोर प्राज भी लक्षित होता जो पाप हो । मालुम होता है इन्होंने जो भी समाज है । किया परहित-हेतु हो किया, भलाई को वृष्टि से हो षया लिखें, कहाँ तक लिखें? समाज की उक्त स्थिति

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145