Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 69
________________ सल्लेखना अथवा समाधिमरण पर रहें, जिससे लोग क्षपक के परिणामो में क्षोभ न कर बाह्य वस्तुओ से मोह को तागो, विवेक तथा संयम का सके । ४ मुनि क्षपक की आराधना को सुनकर आये लोगो आश्रय लो। और सदैव यह विचारो कि मैं अन्य हू और को सभा मे धर्मोपदेश द्वारा सन्तुष्ट करे । ४ मुनि रात्रि पुद्गल अन्य है । 'मै चेतना हु, ज्ञाता-द्रष्टा हू और पुद्गल रात्रि में जागें। ४ मुनि देश की ऊँच-नीच स्थिति के ज्ञान . अचेतन है, ज्ञान-पान रहित है। मैं आनन्दधन हूं और में तत्पर रहें। ४ मुनि बाहर से आये-गयो से बातचीत पुद्गल ऐसा नहीं है।' करें। और ४ मुनि क्षपक के समाधिमरण में विघ्न करने 'हे क्षपकराज ! जिस सल्लेखना को तुमने अब तक की सम्भावना से आये लोगों से वाद (शास्त्रार्थ द्वारा धर्म- धारण नहीं किया था उसे धारण करने का सुअवसर तुम्हें प्रभावना) करें। इस प्रकार ये निर्यापक मुनि क्षपक की आज प्राप्त हआ है। उस आत्महितकारी सल्लेखना मे कोई समाधि मे पूर्ण प्रयत्न स सहायता करते है। भरत और दोष न आने दो। तुम परीपहो-- क्षुधादि के कष्टो से मत ऐरावत क्षेत्रो मे काल की विषमता होने से जैसा अवसर घबडाओ। वे तुम्हारे आत्मा का कुछ बिगाड नही सकते। हो और जितनी विधि बन जाये तथा जितने गुण के धारक उन्हें तुम सहनशीलता एव धीरता से सहन करो और निर्यापक मिल जाये उतने गुणो वाले निर्यापको से भो उनके द्वारा कों की असख्य गुणी निर्जरा करो।' समाधि कराये, अति श्रेष्ठ है। पर एक निर्यापक नही होने 'हे आराधक ! अत्यन्त दुखदायी मिथ्यात्व का वमन चाहिए, कम-से-कम दो होना चाहिए, क्योकि अकेला एक करो, सूखदायी सम्यक्त्व की आराधना करो, पचपरमेष्ठी निर्यापक क्षपक को २४ घण्टे सेवा करने पर थक जायगा का स्मरण करो, उनके गुणो मे मनत अनुगग रखो और और क्षपक की समाधि अच्छी तरह नही करा सकेगा। अपने शद्ध ज्ञानोपयोग मे लीन रहो। अपने महावतों की इस कथन से दो बाते प्रकाश में आती है। एक तो रक्षा करो, कषायो को जीनो, इन्द्रियो को वश में करो, यह कि समाधिमरण कराने क लिए दो से कम निर्यापक सदैव आत्मा मे ही आत्मा का ध्यान करो, मिथ्यात्व के नही होना चाहिए। सम्भव है कि क्षपक की समाधि समान दुखदायी और सम्यक्त्व के ममान सुखदायी तीन अधिक दिन तक चले और उस दशा में यदि निर्यापक एक लोक में अन्य कोई वस्त नही है। देखो, धनदत्त राजा का हो तो उसे विश्राम नही मिल सकता। अत: कम-से-कम सध श्री मन्त्री पहले गम्पादृष्टि था, पीछे उसने सम्यक्त्व दो निर्यापक तो होना ही चाहिए। दूसरी बात यह कि की विराधना की और मिथ्यात्व का सेवन किया, जिसके प्राचीन काल में मुनियो कि इतनी बहुलता थी कि एक-एक कारण उसकी आँखे फूट गई और ससार-चक्र में उसे घूमना मुनि की समाधि मे ४८, ४८ मुनि निर्यापक होते थे और पड़ा । राजा श्रेणिक तीव्र मिथ्यादृष्टि था, किन्तु बाद को क्षपक की समाधि को वे निविघ्न सम्पन्न कराते थे। उसने सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया, जिसके प्रभाव से उसने ध्यान रहे कि यह साधुओ की समाधि का मुख्यता वर्णन । अपनी बँधी हई नरक की स्थिति को कम करक तीर्थकरहै। श्रावको की समाधि का वर्णन यहा गौण है। प्रकृति का बन्ध किया और भविष्यकाल में वह तीर्थंकर ये निर्यापक क्षपक को जो कल्याणकारी उपदेश देते होगा।' तथा उसे सल्लेखना मे सुस्थिर रखते है, उसका पण्डित 'इसी तरह हे क्षपक ! जिन्होने परोषही एव उपसगों आशाधर जी ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। वह कुछ को जीत करके महाव्रतो का पालन किया, उन्होने अभ्युदय यहाँ दिया जाता है और नि.श्रेयस प्राप्त किया है। सुकमाल मुनि को देखो, हे क्षपक ! लोक में ऐसा कोई पुद्गल नही, जिसका वे जब वन मे तप कर रहे थे और ध्यान में मग्न थे, तो तुमने एक से अधिक बार भोग न किया हो, फिर भी यह शृगालिनी ने उन्हे कितनी निर्दयता से खाया। परन्तु सुकतुम्हारा कोई हित नही कर सका। पर वस्तु क्या कभी माल स्वामी जरा भी ध्यान से विचलित नही हुए और आत्मा का हित कर सकती है ? आत्मा का हित तो उसी घोर उपसर्ग सहकर उत्तम गति को प्राप्त हुए। शिवभूति के ज्ञान, संयम और श्रद्धादि गुण ही कर सकते है। अतः महामुनि को भी दे., उनके सिर पर ऑधी से उड़कर

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