Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 72
________________ १२ वर्ष ४२, कि.. अनेकान्त वीर सेवा मन्दिर की कार्यकारिणी की बैठक में मान्य कचरे ऐसे ही लोगों के कारण आज समाज में पंडित के पंडित जी के प्रति श्रद्धाजलि अर्पित की गई और पडितजी प्रति हीन-भावना का उदय हुआ है-कई लोगों को तो की सज्जनता, सादगी, विद्वत्ता और शालीनता का गुण- पडिस नाम से भी चिढ़ जैसी हो गई है। गान किया गया। हमे याद है-एक दिन किसी ने एक ज्ञाता-चारित्रकुछ कहते है कि-जैन समाज में जैन सिद्धान्त के पालक को पडित नाम से संबोधित किया, और दूसरे ने ज्ञाता को पंडित कहा जाने का चलन रहा है और अनीत ऐमे संबोधन देने से उसे रोका। वे बोले-इन्हें पंडित मत में यह पद सर्वोच्च पद माना जाता था। पंडित को ज्ञान कहो; भाई सा० जैसे सबोधन से सबोधित करो। उन्होंने के साथ आचारवान होना भी जरूरी था। सब लक्ष्मी भी कहा कि क्या आपको नहीं मालूम कि आज के अधिकांश पंडित-पद की दासी थी और अच्छे-अच्छे नामी सेठ-साह- पडित नामधारियों की स्थिति क्या है ? उनमे बहुतेरे तो कार भी पडितो के सम्मान मे पलक-पावड़े बिछाए रहते ज्ञानशन्य (मात्र उपाधिधारी) और जैन के नियम उपथे-भी जन पडितों का मुंह जोहते थे कि कब उनके नियमों के पालन से हीन है, कई ने धर्म जैसी विद्या को मुख से किसी सेवा का आदेश मिले । पर, आज सरस्वती पेट-पूर्ति का साधन बना रखा है। भला, जिन्होंने जीवन ने लक्ष्मी के चरण पकड रखे है-अधिकांश पडित भी भर जिनवाणी को पढ़ा---और उसके उपयोग करने को लक्ष्मी देवी की उपासना भे लग बैठे है। कोई आत्मसाधक- छोड सांसारिक वासनापूर्ति के साधनो को एकत्रित करने धार्मिक कार्यों-पूजा, पाठ, प्रतिष्ठा और विधानादि को मे जुट गए, वे पडित कसे हो सकते है ? इनमें कितनेक लक्ष्मी-संचय का माध्यम बना बैठे। वे इनके बदले दक्षिणा विवाह-सबन्धो की दलाली कर रहे है, तो कोई विवाह, में बड़ी राशियां तक वसूलने में लगे है--किन्ही न इस अनुष्ठान, पतिष्ठा और पंचकल्याणक आदि के माध्यमो व्यापार के लिए साधुओ को पकड़ रखा है तो किन्ही ने से गहरी रकमे ऐठ रहे है। वे बोले-हमारी दृष्टि से तो किसी संस्था को। कोई किन्ही अन्य बहानो से लक्ष्मी का कुछ के गलत कारनामो से पूरा (श्रेष्ठ भी) पंडित समाज दासत्व स्वीकार कर रहे है। गोया, वे बरसो की सरस्वती बदनाम हो गया है। अत: अधिकांश लोगो की धारणा उपासना (जो उन्होंने विद्यालयो मे की थी) को शिव-मार्ग पाडत उपाधिमात्र से हट गई है। कई बार तो यह उपाति के स्थान पर ससार बढ़ाने का साधन बना बैठे है। क्या, विवाह-सबन्ध में भी आड़े आकर अच्छे सम्पन्न रिश्ते नहीं जनशिक्षा मे परिग्रह-सचय के उपदेश को ही प्रमुखता है? मिलने देती, आदि : विद्वान् इसे सोचे । उक्त टिप्पणीकार को हमने विद्वानो के पक्ष में बहत । कुछ लोगो के ख्याल में हुआ यह कि कभी पूर्व समय कुछ कहा। आखिर, क्यो न कहते--- हम भी तो पंडित में पंडित हिम्मत हार बैठे और उन्होने आत्म-साधना के हैं, पद की अवहेलना कैसे सुनते ? हमारे साथियो को भी स्थान पर पेट-साधना को प्रमुख बना लिया-वर्षों तक गुस्सा आना स्वाभाविक है-सभी तो च्युत जैसे नहीधर्मशास्त्र पढने के बाद भी उनको दृष्टि परिग्रह-पैसे अच्छे भी है। अस्तु : क्षमा हमारा भूषण है, इसलिए पर जा अटकी और वह इसलिए कि हमारा गुजारा कैसे हमने समलकर मौन धारण किया पर, होगा? उसने इस तथ्य को नही सोचा कि चारित्रवान् हम मोचते है-जैनधर्म शोध का धर्म है और इसमें ठोस ज्ञानी की आवश्यकताएँ कभी अधूरी नहीं रहती- स्व-शोध को प्रमुखता दी गई है.--फिर चाहे वह शोध उन्हें आज भी हाथो-हाथ उठाया जा सकता है। हाँ, आत्मा की हो या शुद्धात्मा बनने के लिए उसके साधक जिनका पाण्डित्य खोखला हो और कच्चा चारित्र हो-उन्हे अन्तरग-बहिरग चारित्र की शोध हो। ऐसी ही शोध अवसर खोजने और तरह-तरह के प्लान (Plan) बनाने परित का विषय है। पर, वर्तमान मे उक्त शोध का पड़ते हैं--रटन्त भाषा के धनी व कोरे व्याख्याता ही ऐसा स्थान बहलतया पुरातत्त्व, इतिहास और भूगोल जैसी करने को मजबूर होते है और ज्ञान और चारित्र मे अध- वाह्य-शोधों को मिल बैठा है। हम आए दिन पढ़ते हैं

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