Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 80
________________ ४ वर्षे ४२; कि० ३ हार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान तथा व्यवहार सम्यम्चारित्र कदापि नहीं बनता। वहा तो मिथ्या चारित्र ही होता है, और वह मिथ्याचारित्र बिना मिध्यादर्शन के कदापि नहीं हो सकता। इससे सिद्ध है कि प्रथम गुणस्थान में मिथ्याचारित्र का मूल कारण मिथ्यादर्शन ही है, न कि क्रियावती शक्ति जैसा कि लेख में शक्ति के कारण से होने वाला योग कहा है, ऐसा आगम मे कही भी देखने मे नही आया। हां, पंचाध्यायी मे पृ०४६ पर क्रियावती प्राक्ति और भाववती शक्ति क्या है ? इस बारे में कहा है अनेकान्त "तत्र क्रिया प्रदेशो देशपरिप्पद लक्षणो वा स्यात् । भाव शक्तिविशेषस्तपरणामोऽययानिरथायः ॥१३४ इससे यह सिद्ध होता है कि जीव और पुद्गलो में जो एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जो गमन होता है, उसमे क्रियावती शक्ति कारण है और प्रदेशत्व गुण के अतिरिक्त अन्य गुणो मे जो तारतम्य रूप परिणमन होता है वह भाववनी शक्ति है । इसीलिए जीव तथा पुद्गल के सिवाय बाकी के रूपों को निष्क्रिय कहा है। प्रदेशश्व के गुण अतिरिक्त बाकी गुणो के अशो मे तरतम रूप से परिणमन होता है । अत क्रियावती शक्ति को मिथ्या आचरण का कारण बताना आगम विपरीत है। पंचास्तिकाय पू० २७६ गाथा १०७ की तात्पर्यवृति टीका गाथा १ मे कहा है । अथ व्यवहारमम्यग्दर्शन कथ्यते एवं जिणपण से समाणसभावदोभावे | पुरिसाभिणिबधे दमण सद्दो हर्वाद जुत्ते । अर्थ - जैसा पहले कहा है वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए पदार्थों को रुचिपूर्वक बद्धान करने वाले भव्य जीव के ज्ञान में सम्यग्दर्शन शब्द उचित होता है । लेख मे वीरबाणी पृ० १६० पर लिखा है कि प्रथम मिध्यात्व गुणस्थान मे अभव्य जीव के व्यवहार सम्यग्दर्शन से तत्वश्रद्धान व्यवहार सम्यग्ज्ञान (तत्त्व ज्ञान ) पूर्वक महाव्रतो में प्रवृत्तिरूप आवरण करने लगता है तो उस समय उसके मिथ्याय आदि १६ प्रकृतियों का बंध नहीं होता और इसका प्रमाण समयसार गाथा २७५ दिया है। पर, गाथा २७५ मे ऐसा बिलकुल नहीं कहा, उसमे तो केवल यह कहा है कि अमस्य मिध्यादृष्टि जीव संसार के भोगों के निमित्तभूत धर्म का श्रद्धान करता है, परन्तु कर्म क्षय निमित्तभूत जो धर्म है उसका श्रद्धान नहीं करता। मुझे तो बड़ा आश्चर्य है कि लेख में २७५ गाथा का अर्थ ऐसा कैसे कर लिया, जोंकि गाथा के बिलकुल विपरीत है । आश्चर्य है कि किसी विद्वान् ने भी इस विषय पर कुछ नही कहा । यदि आगम के अनुकूल है तो उसका खुलासा करके समर्थन करना चाहिए था अन्यथा विरोध । ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व में जो मिध्यात्व को चित्र कहा गया था, पक्षपात व उसकी पुष्टि करने के लिए तोड़-मरोड़कर गाथा का अर्थ किया गया है। किन्तु गलत बात को सिद्ध करने के लिए कितने ही प्रमाण दिये जायें गलत बात सही सिद्ध नही हो सकती । गलत तो गलत ही रहेगा। हा, श्री कैलाशचंद्र सेठी जयपुर ने, तथा श्री पीयूष जी लशकर, ग्वालियर वालो ने इसका विरोध किया, जो सराहनीय है क्योकि मिथ्यात्व जैसे महान पाप को बंध का कारण न मानने के प्रचार से जनता का बहुत अहित होगा । साधारण जनता गहराई मे तो आती नही है, कुछ विद्वान् भी हाँ में हाँ करत है फिर साधारण जनता को कौन समझायेगा ? साधारण जनता अनादि काल से मिथ्यात्व के चक्कर मे पड़कर ससार म भ्रमण कर रही है, उपदेश देते-२ भी मिथ्यात्व का त्याग नही करती। अगर उसको मिथ्यान्त्र का समर्थन भी प्राप्त हो जाय तो कहना ही क्या ? निश्चय और व्यवहार तो दो नय है । नय वस्तु के स्वरूप का कथन करने वाली होती है । निश्चय नय वस्तु के सत्यार्थ स्वरूप को बतलाती है और व्यवहार नय उसके कारण को । जैसा प० दौलतराम जी ने बड़ी सरल भाषा में कहा है, 'सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो' अर्थात् कार्य के होने पर उसमे जो कारण होता है उस कारण मे कार्य का आरोप करके व्यवहार से उसको उस रूप कहा जाता है । जैसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का होना कार्य अर्थात् आत्म-श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन और उसकी प्राप्ति मे जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये सात तत्त्वों का चितन, जिसमे दर्शनमोह (मिध्यात्व) का नाश होता है, वह सात तत्वों का तिन कारण है तथा सच्चे देवशास्त्र गुरु का श्रद्धान भी कारण होता है, इसलिए कारण मे कार्य का

Loading...

Page Navigation
1 ... 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145