Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 82
________________ ६, वर्ष ४२, कि०३ अनेकान्त से ज्यादा भी हो सकता है, जिससे मिथ्यादष्टि अभव्य इसके अतिरिक्त मो० मार्गप्र० पृ० ३३ पर भी नवग्रीवक तक चला जाय और सम्यग्दृष्टि जीव स्वर्ग तक कहा है-"शुभयोग होउ वा अशुभयोग होउ, सम्यक्त्व ही जाय' जैसे दौलतराम जी ने छहढाला में कहा है- पाये बिना घातिया कर्मन की तो समस्त प्रकृतिनिका निरंतर बंध हुआ ही करे है, कोई समय किसी भी प्रकृति का बंध 'मुनिव्रत धार अनन्त बार प्रीवक लो उपजायो।। हुआ बिना रहता नाही। बहरि अघातियानि की प्रकृतिनि4 निज आतमज्ञान बिना सुखलेश न पायो।" विस शुभोपयोग होते पुण्य प्रकृतिनि का बध हो है ।' इसका कारण मिथ्यात गुणस्थान मे शुभोपयोग से इस सब कथन का सारांश यह है कि मिथ्यात्व के बध होने वाला पुण्य है। का कारण मिथ्यात्व ही है अन्य कोई कारण नहीं। ऐसा वीरवाणी पृ० १६१ पर लिखा है कि मिथ्यात्व आदि आगम मे सब जगह कथन है । इसके विपरीत अन्य कोई १६ प्रकृतियो का बध न होते हुए भी उसका उदय रहता कारण आगम में देखने में नहीं आया और न वीरवाणी है इसमे लेखक का कहना है कि उन महानुभावो को ध्यान के लेख मे ही कोई आगम-प्रमाण दिया है। और ना ही जो देना चाहिए, जो मिथ्यात्व कर्म के उदय मे मिथ्यात्व प्रमाण दिये है उनमे ही कही मिथ्यात्व के वध का कोई आदि १६ प्रकृतियों का बध नियम मे मानते हैं पर दूसरा कारण बताया है। मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियों का बध नियम से होता है, सभी भांति 'मिथ्यात्व ससार-भ्रमण का मूल है, इसे इसका प्रमाण गोमट सार गाथा ६५ से १०३ तक प्रत्येक अकिंचित्कर' सिद्ध करने का प्रयत्न करना तीर्थंकरो की गुणस्यान मे कर्मों की सब प्रकृतियो की व्युच्छित्ति बताई है। उसमें प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान मे १६ प्रकृतियों की वाणी के प्रति बगावत करना और जिनवाणी को झुठव्युच्छित्ति कही है अर्थात् १६ प्रकृतियो का बंध मिथ्यात्व लाना है। फलत: ऐसा बचन जिनवाणी नही हो सकता, गुणस्थान मे नियम से होता है, उससे आगे के गुणस्थान भले ही उसे 'आधुनिक-गुरुवाणी' कह दिया जाय ! हाँ, मे नही होता। क्योकि वहा बघ का कारण मिथ्यात्व का इतना अवश्य है कि-सभी गुरु छगस्थ होते है-अत: अभाव है। इसी प्रकार आगे के गुणस्थानो मे बध के कारणों के अभाव हो जाने से बाको प्रकृतियो की व्युच्छित्ति उनकी वाणी मिथ्या भी हो सकती है। हमे तो आश्चर्य होती जाती है उनकी संख्या तथा नाम इन्ही गाथाओ मे है कि 'अकिंचित्कर' की पुष्टि मे सलग्न कुछ विद्वान् पक्षबताये है। तथा गाथा ९७ मे स्पष्ट कहा है कि ये बंध पात के व्यामोह में पड़, क्यो अपनी विद्वत्ता को प्रदर्शित व्युन्छित्ति नियम से होती है। गाथा कर रहे है ? ऐसे प्रयास से तो उनकी प्रतिष्ठा को बट्टा ही लगा है- ऐसा हमारा मत है। अयदे विदिय कसाया वज ओराल मणु दुग णुमा वाऊ। देमे तदिय कसाया णियमेणिह बध वोच्छिण्णा ।। २१३४, दरियागंज, दिल्ली "मिथ्याभाव अभाव तै, जो प्रगटै निज भाव । सो जयवन्त रहो सदा, यह ही मोक्ष उपाय ॥ इस भव के सब दुखनि के, कारण मिथ्याभाव। तिनकी सत्ता नाश करि, प्रगटै मोक्ष उपाय ।। बह विधि मिथ्या गहन करि, मलिन भयो निज भाव । ताको होत अभाव है, सहजरूप दरसाव ॥"

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