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२८, वर्ष ४२, कि० २
अनेकान्त
शरीर को भी कृश करने के लिए सल्लेखना मे प्रथमतः रहता है। इस जीव ने अनन्त बार मरण किया, किन्तु अन्नादि आहार का, फिर दूध, छाछ आदि पेय पदार्थों का समाधि महित पुण्य-मरण कभी नहीं किया, जो सौभाग्य से त्याग करे। इसके अनन्तर कांजी या गर्म जल पीने का या पुण्योदय से अब प्राप्त हुआ है। सर्वज्ञदेव ने इस समाधि अभ्यास करे।
सहित पुण्य-मरण की बडी प्रशमा की है, क्योकि समाधिअन्त में उन्हें भी छोड़कर शक्तिपूर्वक उपवास करे। पूर्वक मरण करने वाला महान् आत्मा निश्चय से संसारइस तरह उपवास करते एवं पंचपरमेष्ठी का ध्यान करते रूपी पिंजरे को तोड़ देता है-उसे फिर ससार के बन्धन हए पूर्ण विवेक के साथ सावधानी में शरीर को छोड़े। मे नही रहना पड़ता है।'
इस अन्तरंग और बाह्य विधि से सल्लेखनाधारी आनद. ज्ञानस्वभाव आत्मा का पाधन करता है और वर्तमान सल्लेखना में सहायक और उनका महत्त्वपूर्ण कर्तव्य : पर्याय के विनाश से चिन्तित नहीं होता, किन्तु भावी आराधक जब सल्लेखना ले लेता है, तो वह उसमे पर्याय को अधिक ,खो, शान्त, शुद्ध एव उच्च बनाने का बडे आदर प्रेम और श्रद्धा के साथ सलग्न रहता है तथा पुरुषार्थ करता है। नश्वर से अनश्वर का लाभ हो, तो उत्तरोत्तर पूर्ण सावधानी रखता हुआ आत्म-साधना मे उस कोन बुद्धिमान छोड़ना चाहेगा? फलतः सल्लेखना- गतिशील रहता है। उसके इस पुण्य कार्य में, जिसे एक धारक उन पाँच दोषो से भी अपने को बचाता है, जिनसे 'महान-यज्ञ कहा गया है, पूर्ण सफल बनाने और उसे अपने उन सल्लेखना-व्रत में दूषण लगने की सम्भावना रहती पवित्र पथ से विवलित न होने देने के लिए निर्यापकाचार्य है। वे पांच दोष निम्न प्रकार बतलाये गये है :- (समाधिमरण कराने वाले अनुभवी मुनि) उसकी सल्लेखना
सल्लखना ले लने के बाद जीवित रहने की आकांक्षा में सम्पूर्ण शक्ति एव आदर के साथ उसे सहायता पहुचाते करना, कष्ट न सह सकने के कारण शीघ्र मरने की इच्छा है और समाधिमरण में उसे सुस्थिर रखते हैं। वे सदैव करना, भयभीत होना, स्नेहियो का स्मरण करना और उसे तत्त्वज्ञानपूर्ण मधुर उपदेश करते तथा शरीर और अगली पर्याय मे सुखो की चाह करना ये पाँच सल्लेखना- ससार की असारता एव क्षणभगुरता दिखलाते है, जिससे व्रत के दोष है, जिन्हे अतिचार कहा गया है।
वह उनम माहित न हो, जिन्हे वह हेय समझकर छोड़ सल्लेखना का फल :
चुका या छोड़न का सकल्प कर चुका है, उनको पुन. चाह सल्लखना-धारक धर्म का पूर्ण अनुभव और लाभ लेने न करे। आचार्य शिवार्य ने भगवता-आराधना (गा० ६५०के कारण नियम से नि.यस अथवा अभ्युदय प्राप्त करता ६७६) मे समाधिमरण-कराने वाले इन निर्यापक-मनियो है। समन्तभद्र स्वामी ने सल्लेखना का फल बतलाते हुए का बड़ा सुन्दर और विशद वर्णन किया है। उन्होने लिखा है
लिखा है-- ___ 'उत्तम सल्लेखना करने वाला धर्मरूपी अमृत का पान
'वे मुनि (निर्यापक) धर्मप्रिय, दृढ़श्रद्धानी, पापभीरू, करने के कारण समस्त दुःखो से रहित होकर या तो वह परीषहजेता, देश-काल-ज्ञाता, याम्यायोग्यविचारक, न्याय नि.श्रेयस को प्राप्त करता है ओर या अभ्युदय को पाता मार्ग-मर्मज्ञ, अनुभवी, स्वपरतत्व-विवेकी, विश्वासी और है, जहां उसे अपरिमित सुखो की प्राप्ति होती है। पर-उपकारी होत है। उनकी संख्या अधिकतम ४८ और _ विद्वद्वर पण्डित आशाधर जी कहते हैं कि 'जिस महा- न्यूनतम २ हाती है।' पुरुष ने ससार परम्परा के नाशक समाधिमरण को धारण ४८ मुनि क्षपकको इस प्रकार सेवा करे। ४ मुनि किया है उसने धर्मरूपी महान् निधि को परभव मे जाने क्षपक को उठाने-बैठाने आदि रूप से शरीर को टहल करे। के लिए अपने साथ ले लिया है, जिससे वह इसी तरह ४ मु धर्मश्रवण कराये। ४ मुनि भोजन और ४ मुनि सुखी रहे, जिस प्रकार एक ग्राम से दूसरे ग्राम को जाने पान कराये । ४ मुनि देख-भाल रखे । ४ मुनि शरीर के वाला व्यक्ति पास मे पर्याप्त पाथेय होने पर निराकुल मलमूत्रादि क्षेपण म तत्पर रहे । ४ मुनि वसतिका के द्वार