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२६. वर्ष ४२, कि०२
अनेकान्त ___ तुलना करने पर यह अन्तर दृष्टिगोचर होता है कि 'त' का लोप व कही अलोप है। लगता है धवनाकार ने क्रिया के रूप मे जं वकाण्ड मे 'त' के स्थान पर 'द' है। इस विषय मे किसी एक नियम का अनुसरण नही किया किन्तु पञ्चसग्रह मे जो धवला से पहले का है 'त' का है। इससे यह शका होती है कि गाथा मे क्रिया का रूप लोप है मग. ध ( 11 के शब्द विमर्श से देखा जाता है कि धकलाकार ने ही बदला हो। सम्भावना अधिक यही है सूत्रों में, टीका में व उद्धरणो में कहीं 'त' का 'द', कही कि धवलाकार के समक्ष गोम्मटसार मौजूद था।'
सन्दर्भ-नोट १. यह ग्रन्थ भारतीग ज्ञानपीठ काशी मे १९६० मे शका समाधान की आवश्यकता ही नहीं रहती। प्रकाशित हुआ है। प० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इमलिए लगता है कि सूत्र को रचना गाथा के रूप अपने 'जैन माहि-य के इतिहाग' मे इगता साहकान
का ही अन्वय है तथा गाथा के रूप को कायम रखना विक्रम की आठवी शताब्दि से पूर्व का माना है। ही इरा विसगति का कारण है । उस दशा मे स्वय २ सूत्र की भाषा पर स्वय वीरसेन को शका समाधान पटखण्डागम ही पचसग्रह, गोम्मटसार के बाद का करना पड़ा। गति आदि मार्गणा को जीवो का ठहरता है। आधार बनाने के लिए स तभी विभक्ति का निर्देश ३. जैन शिलालेख सग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ भाग ५ पृ० होना चाहिए था परन्तु गति, इन्द्रिय, काय, कपाय, ५८ मे पेटतुम्बलम् (कुर्नल, आंध्र प्रदेश) मे जिन मूर्ति लेश्या, भव्यत्व, सम्पक्व और सज्ञी पदो म विभक्ति के पाद पीठ पर ऑकित लेख कन्नड भाषा मे १२वी नही पाई जाती है । १४ पदो मे में केवल ६ पदो मे सदी का (लेख न० १३०) दिया हुआ है जिसमे ही विभक्ति का प्रयोग क्यो किया जबकि सूत्र की किसी चिकब्बे नाम की महिला द्वारा गोम्मट पार्श्व भापा में व्याकरण का ध्यान रखना आवश्यक है इस जिन की स्थापना का वर्णन - । तो क्या 'गोम्मट' कठिनाई का जवाब वीरसेन ने 'आइ-मज्झत-वण्ण- शब्द कवल बाहुबनि की मूर्ति के लिए नहीं बल्कि सर लोवो' यह अज्ञात प्राकृत व्याकरण का सूत्र उद्धत शिल्प विशेष या स्थान विशेष का सूचक है न कि व रके कह दिया कि आदि मध्य और अन्त के वर्ण सेनापति चामुण्डराय के अपर नाम का? ग्रो स्पर ना लोप हो गया है अथवा विभक्ति वाले ४. (a) यही कारण हो न नेमिचन्द्र ने वीरसेन का नाम पद के पूर्ववती विभक्ति-रहित पदो को मिला कर स्मरण नहीं किया। एम पद समझना चाहिए। यह समाधान ठीक नहीं, (b) पुष्पदत और भूतबलि का समय ६६.१५६ ई. क्योकि इसके अनुसार तो सब पद विभक्ति रहित माना गया है । यदि कुदकुंद २००० वर्ष पूर्व अर्थात् हो अन्तिम पद ६. माथ विर्भाक्त गनी चाहिए ई० पूर्व पहली सदी के है तो कहना होगा कि षट्थी या फिर प्रत्येक पद के साथ निभकि! लगनी खण्डागम नी रचना समयसार के बाद की है व समय चासिनी। तभी सूत्र की एकरूपता होती और सार ही प्राचीनतम आगम ग्रथ है।
(१०२४ का शेषाश) सारगर्भित है। मुद्रा चाहे शासन की हो, धामिक वर्ग हो सयमोपकरण रूप मे पिच्छि की आवश्यकता होती है। सर्वत्र समेक्षित होती । वैष्णवो शायन्समतानुयायियो, २८ मूलगुणो के अतिरिक्त भी वे मुनिराज अन्य अनेक शैवो, राधा स्वामी सम्प्रदायिको आदि मे तिलक लगाने विशेषताओ को लिए हुए होते है। अहिंसा और अपरिग्रह को पृथक-पृथक प्रणाली है। राजभूतो के कन्धो पर अथवा की चरम सीमा को प्राप्त ये दिगम्बर मुनिराज समस्त सामने वक्ष: स्थल पर नस्य निर्मित या धातुपटित मुद्रा विश्व के आराध्य है। अहिंसा का इतना सूक्ष्म परिपालन होती है जिससे उसकी पद-प्रतिष्ठा जानी जाती है। और इनके जीवन में होता है। ये हरी घास पर भी पैर नही राजभृत्यतां को प्रमाणिकता सिद्ध होती है। इसी प्रकार रखते। श्रमण परम्परा के आदिकाल से अधिकृत चिह्न के 67 मे अत: मानव समाज की सार्थकता यह है कि उनके परम पिच्छि कमण्डलु रखने का विधान चला आया है। पावन जीवन के आदर्श को प्राप्त करने हेतु उन्ही के पथ
विशुद्धि के लिए शो वोपकरण में कमण्डलु की तथा पर चलने का साहस करते हुए आत्म साधना में लग सकें।