Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 64
________________ २४ वर्ष ४२, कि०२ .अनेकान्त सिर, अत: ऊर्जा आगम में किसी प्रकार की बाधा न हो से शुद्धता हो तो सामान्य जन, दुराचारी, अन्यायी, असंयमी अतः के शराशि का परित्याग आवश्यक होता है। सभी जीव स्नान करने से शुद्ध माने जायेंगे तो ऐसा नहीं "मूलाचार आराधना कोष" मे केशलोच क विषय है। प्रत्युत जलादिक बहुन दोषो से युक्त है, अनेक तरह मे मूल गुणाधिकार एक में इस प्रकार कहा है-मुनियो के सूक्ष्म जीवों से भरे है, पाप के मूल है इसलिए संयमी के पाई मात्र भी धन सग्रह नहीं है जिससे कि हजामत जनो को स्नान व्रती ही पालन योग्य है। करावे और हिंसा का कारण समझ उस्तरा नामक शस्त्र खड़े होकर आहार लेना :-... भी नही रखते और दीन वत्ति न होने से किसी से दीनता मुनि भोजन एक ही स्थान पर खड़े होकर अपने पात्र कर भी क्षौर नहीं करा सकते इसलिए समूर्छनादिक जुआ, मे लेते है । जैसा भी सद्ग्रहस्थ रूख-रूखा, नीरस अथवा लीख आदि जीवो की हिमा के त्यागरूप सयम के लिए सरस किन्तु प्रासुक एव सेव्य आहार देता है उसे गोचरी प्रतिक्रमण कर तथा उपवास कर आप ही केशलोच करते। वृत्ति या भ्रामरी वृत्ति से गरीब-अमीर के भेदभाव से है। यही लोचनामा गुण है । रहित होकर शरीर की स्थिति के लिए यथावश्यक ग्रहण नग्नता:-- करते है । सूर्योदय से ७२ मि० पश्चात् से लेकर सूर्यास्त __ चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग करना जिन साधु के ७२ मि० पूर्व तक दिन में एक ही बार आहार भोजन के लिए आवश्यक है। नग्नता इसीलिए आवश्यक है। ग्रहण करते है। दूसरी बार जलादि का भी ग्रहण नही अचेलतन चेल वस्त्र रहित होकर निर्ग्रन्थ नग्न दिगम्बर करते। अवस्था को प्राप्त करना, वासनाओ के अभाव को सबसे अब प्रश्न उठता है कि मुनि खड़े होकर ही आहार क्यो बड़ी कसौटी है । वामनाओ मे घिरा व्यक्ति कभी भी नग्न ग्रहण करते है ? इसका समाधान यह है कि बैठकर भोजन नही रह सकता । दिगम्बर मुनि भीतर से भी वासना शून्य सुरुचिपूर्वक लिया जाता है, जबकि उनकी साधना मे होते है इसलिए वाह्य मे बिना सकोच के नग्न रह पाते है। आहार की रुचिता का परित्याग रहता है। असुविधा अस्नान : तथा अरुचि के साथ लिया गया भोजन मुनि के बाईस अस्नान वे रत्नत्रय से पवित्र रहने वाले मनिराज परिषद के अन्तर्गत आता है। कभी भी स्नान नही करते । शरीर के प्रति ममत्व भाव पिच्छि कमण्डलका न होना मुनिचर्या का विशेष अग है । अतः उसके रक्षण मुनि पिच्छि कमण्डलु लेकर क्यो चलते है ? दिगम्बर के लिए जागरूक रहना दोष और अतिचार मे आता है। मुनि के पास सयम तथा शोच के उपकरण के रूप मे स्नान आदि न करने से उन की वैचारिक दशा अन्तर्मखी हो पिच्छि कमण्डलु होते है। मानो पिच्छि-कमण्डलू स्वावजाती है। अपने वाह्य वपु प्रदेश की चिन्ता ही छूट जाती है। लम्बन के दो हाथ है प्रतिलेखन शुद्धि के लिए पिच्छि की स्नान करने से उन्हे अपने शरीर के प्रति ममत्व भाव नितान्त आवश्यकता है और पाणिग-पाद-प्रक्षालन के लिए, बढता है। उनके अंतर्मन में शारीरिक सौन्दर्य की भावना शुद्धि के लिए कमण्डलु वान्छनीय है। मयूरपिच्छि का लव जागत होती है तथा उनकी भावना के साथ-साथ श्रावक भाग इतना मृदु होता है कि प्रतिलेखन से किसी सूक्ष्म की भावना में आकर्षण शक्ति जागने लगती है। मुनि को जन्तु की हिंसा भी नही होती स्वयं मयूरी के पंख भी स्नान आदि से कोई मतलब नही होता उनका जीवन तो पिच्छि के निमित्त उपादान नही हो सकते। इन कारणों तपस्वी का होता है। जिससे उनका शरीर जीर्ण-शीर्ण तथा से मयूरपिच्छि धारण दिगम्बर साधु की मुद्रा है। पिच्छि तपस्वी लगे। रखने से वह नग्न मुद्रा किसी प्रमादी की न होकर त्यागी अब प्रश्न यह उठता है कि स्नानादि न करने से का परिचय उपस्थित करती है। "मुद्रा सर्वत्र मान्या अशुचिरना होता है ? इसका समाधान यह है कि मुनिराज स्यात् निर्मुद्रो नैव मन्यते"-नीतिसार की यह उक्ति व्रतों कर सदा पवित्र है, यदि व्रत रहित होकर जन स्नान (शेष पृ. २६ पर)

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