Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 47
________________ श्रुतदेवता की मूर्तियों में खण्डित होने से बचायें इस समय ताजा सन्दर्भ आचार्य कुन्दकुन्द का है। नन्दि की सस्कृत टीका है । मैंने वसुनन्दि के एक नये ग्रन्थ इसलिए मुख्यरूप से उन्ही के प्राकृत ग्रन्थों की बात यहाँ तच्चवियारों' का सापादन किया था और उसकी कहनी है। प्रसंगतः कतिपय अन्य ग्रन्थो की बात कहना प्रस्तावना मे वसुनन्दि के समय आदि कई विषयों पर भी अपेक्षित है। गत कुछ वर्षों में भगवती आराधना, नये ढग से विचार किया था। पण्डित जी को प्रस्तावना मलाचार, गोम्मटसार के नये सस्करण प्रकाशित हुए है। सुनाकर उनसे चर्चा कर रहा था। प्रसगन. मूलाचार की इतने प्रामाणिक, साफ-सुथरे, स्वय में प्रायः पूर्ण, इसके टीका की बात आयी। मैने पण्डितजी से पूछा कि 'टीका पूर्व प्रकाशित नही हुए। इनमें जो कुछ और करण य है की प्राचीन पाण्डुलिपियों में प्राकृन गाथाओ की संस्कृत या अपेक्षित था, उसे सम्पादक, ग्रन्थमाला तथा सम्पादक छाया है या नही ?' पण्डितजी चौके । मैंने कहा कि तथा अन्य सम्बद्ध विद्वान जानते थे, जानते है। अगले माणिकचन्द ग्रन्थमाला के सस्करण में छपी है । पण्डितजी संस्करणो मे इस सस्कार की आशा भी की जा सकती है। ने सोनकर कहा--"मेरी समझ से पाण्डुलिपियों में छांया कुछ सम्बद्ध तथ्यो को यहाँ प्रस्तुत कर देना उपयुक्त होगा। नही है। फिर भी देखना पडेगा। वर्णी सस्थान में दो भगवती आराधना पर विद्यावारिधि की उपाधि के पाण्डुलिपियां भी है। देखना और मझे भी बताना ।" लिए हमने एक अनुसन्धाता का पजीयन कराया था। देखने पर पता चला कि टीका मे छाया नहीं दी गई है। इससे भगवती आराधना को एक बार पुन: सूक्ष्मता से सच तो यह है कि प्राचीन प्राकृत ग्रन्थों में अनेक से परखने का अवसर मिला। नये सारण को भी पूरी पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त है, जिनकी संस्कृत लाया नहीं हो सावधानी से देखा । मूल ग्रन्थ की प्राकृत गाएँ सस्कृत सकती, व्याख्या ही हो सकती है। टीका मे प्रतीको के रूप मे सुरक्षित है। इ. रण मे भगवती आराधना और मलाचार दिगम्बर परम्परा प्रकाशित गाथाएँ टीका के प्रतीको से मेल नहीं खाती। मे बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते है। दोनो ग्रन्थो की पतासम्पादक का इस ओर ध्यान गया होगा और इस सम्बन्ध धिक गाथाएँ श्वेताम्बर ग्रन्थो में भी पायी जाती है। मे प्रस्तावना में चर्चा की गयी होगी, यह मानकर हमने मूलाचार की गाथाएँ कुन्दकुन्द में भी पर्याप्त संख्या मे प्रस्तावना को देखा । उसमे कही इसका उल्लेख नहीं था। पायी जाती है। कहीं-कही इसे कुन्दकुन्द का ही माना सम्पादक स्वर्गीय प० कैलाशचन्द्र शास्त्री तब यही वाराणसी गया है। इन सब दृष्टियो से दोनो ग्रन्थो के पूर्ण प्रामाणिक में थे, उन तक बात पहुंचायी। अब उनका भी ध्यान इस मूल पाठ उपलब्ध रहना आवश्यक है। और गया। उन्होंने बहुत सहज भाव से कहा- 'बहुत-सी इधर के दशको मे आचार्य कुन्दकुन्द की बहुत चर्चा बातो की ओर ध्यान गया, पर इस ओर ध्यान ही नहीं हुई है। इसलिए उनके ग्रन्थो के भी अनेक सस्करण प्रकागया।' स्पष्ट है कि टीकाकार के समक्ष भगवती आरा- शित हुए है। माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला, सनातन जैन ग्रन्थधना की उससे निम्न पोथी रही, जिसका पाठ मूल मे माला, राजचन्द्र जैन ग्रन्थमाला ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को छपा है। कुल मिला कर हम लोग इस निष्कर्ष पर पहुचे प्रकाश में लाने का प्राथमिक पायोनियर कार्य किया। कि मल ग्रन्थ का नया संस्करण और अधिक पाठालोचन मोनगढ. भारतीय ज्ञानपीठ आदि से भी कई ग्रन्थ प्रकाशित के साथ प्रकाशित होना चाहिए । अन्य बाते अलग है। हए है। इधर के वर्षों में अन्य अनेक स्थानों से इसी प्रकार मूलाचार के विषय मे कई बाते सामने के ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। डॉ० ए० एन० उपाध्ये का आयी । लगभग दो दशक पूर्व पण्डिन फूल चन्द्र सिद्धान्त- प्रवचनसार तथा प्रो० ए० चक्रवर्ती का समयसार और शास्त्री ने इसके सम्पादन का कार्य आरम्भ किया था। पचास्तिकायसार उनकी विस्तृत एव अध्ययनपूर्ण प्रस्तावकतिपय प्राचीन पाण्डुलिपियों के पाठान्तर भी लिए थे। नाओ के कारण बहुचचित हुए। डॉक्टर उपाध्ये जीवन के फिर अस्वस्थता तथा अन्य व्यस्तताओ के कारण यह कार्य अन्त तक कुन्दकुन्द के ग्रन्थो के पूर्ण पाठालोचन पूर्वक रह गया। मुझे इसकी जानकारी थी । मूलाचार पर वसु- तैयार किये गये संस्करणो की बात करते रहे।

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145