________________
८, वर्ष ४२, कि० २
अनेकान्त सौभाग्य से उत्तर तथा दक्षिण भारत मे कुन्दकुन्द के जाती है। अब तो प्राचीन प्राकृत सिद्धान्त ग्रंथों को ग्रन्थों की शताधिक प्रतियाँ उपलब्ध है। इसके बावजूद व्याकरण और छन्दों के अनुसार बदलने का सिलसिला अभी तक एक भी ऐसा मामूहिक उपक्रम नहीं हुआ, भी शरु हो गया है । ग्रन्थ छपते है औ• निःशुल्क वितरित जिसमें विभिन्न कालो, विभिन्न क्षेत्रो और विभिन्न हो जाते है। वे अन्य ऐसे विद्वानो के पास नहीं पहुंचते, परम्परागो की चुनी हुई विशिष्ट पाण्डलिगियो को एक जो ईमानदारी से इन्हे पढे और कुछ गलत लगे तो उसे साथ रखकर मल पाठ का पर्यालोचन किया गया हो। माहस पूर्वक कह सके । यदि यह सिलसिला जारी रहा तो ऐसी कोई योजना भी अभी तक किसी सस्था की गोर से मात्र कन्दकन्द के ही नहीं दिगम्बर परम्परा के सभी सामने नहीं आयी।
प्राचीन मिद्धान्त ग्रन्थ बदल जायेंगे । तब वे सभी भगवान् ___ इसके विपरीत इन वर्षों में कुन्दकुन्द के ग्रन्थो के जो महावीर मे एक हजार वर्ष बाद के स्वत: सिद्ध हो जायेंगे। संस्करण प्रकाशित हुए है, उनसे अब यह पता लगना
प्राचीन ग्रन्थो के सम्पादन के लिए पाठालोचन के कठिन हो गया है कि प्राकृत गाथाओं का मूल पाठ किसे
सिद्धान्त अब ससार भर में प्रसिद्ध हो चुके है। उन पर माना जाये। मब संस्करणो को माथ खे तो अब अलंग
पुस्तके प्रकाशित है। पाठालोचन के सिद्धान्तो को आधार अलग नामकरण अपेक्षित होगे। अभी तक तो सोनगढ के
बनाकर रामायण और महाभारत जैसे विशालकाय ग्रंथों बहु-प्रचार के कारण लोगो ने सोनगढी ही नामकरण किया
का भी सम्पादन हो चुका है। कुन्दकुन्द के ग्रंथो का पाठाथा, पर अब देहलवी, जबलपुरी, बम्बइया, इन्दौरी, उदय
लोचन असम्भव कार्य नही है ! परिश्रमसाध्य अवश्य है । पुरी, जयपुरी आदि किमम-किसम के कुन्दकन्द' नयी
व्यय और ममयसाध्य भी है। जय बोलने और जश्न मनाने पीढ़ी को सौगात मे मिलने शुरु हो गये है। अभी तक तो
से यह सम्भव नही है। उन पडितो, प्रोफेसरों से भी इसकी प्रवचनो और व्याख्याओ के आधार पर कुन्दकुन्द के ग्रयो
अपेक्षा नही की जा सकती जो गंगा जाकर गंगावास और को मन्दिरी में रखने और बाहर फेकने के आन्दोलन हो
जमुना जाकर जमनादास - जाते है । डॉ. हीरालाल जैन रहे थे, अब श्रुतदेवता की इन खण्डि। मतियो का विसर्जन
डॉ० ए एन. उपाध्ये, प. हीरालाल शास्त्री, पं. कैलाशकहाँ करेगे? हा हुजूम 'झडा ऊंचा रहे हमारा' कहता
चन्द्र शास्त्री, जैसे विद्वान अब नहीं रहे, जो इस महत् हुआ, दूसरे सभी को धकियाता हुआ आगे बढ़ जाना चाहता है। इसे पता नही कि जिस शून्य मे यह भीड़ बढ़
कार्य को अपने अनुभवी हाथो सम्पन्न करते । अब तो नयी
पीढी के विद्वानो और युवा नेतृत्व को इसके लिए आगे रही है, उसके छोर पर गहरा महासागर है। प्राचीन
आना होगा । विद्वान् आचार्यों और सन्तो को इस कार्य के सिद्धान्त ग्रन्थो के साथ यह खिलवाड जारी रही तो जिसे
लिए मार्गदर्शन करना होगा। नये नये समयसार और हम जिनवाणी कहते है, श्रुतदेवता कहते है, उसकी एक भी
महापुराणों को रचने का महारंभ त्यागकर श्रुतदेवता की मति अखडित नही बचेगी। इस स ट की ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए।
मूर्तियों को खंडित होने से बचाने का संकल्प लेना होगा। आचार्य कुन्दकुन्द के इन प्रकाशनो के साथ जब श्रद्धेय आचार्य कुन्दकुन्द के ऐसे प्रकाशित ग्रन्थों के अशुद्ध आचार्यो, प्रतिष्ठित पण्डिो , प्रोफेमरो के नाम जुड़ जाते
__ और एक दूसरे सस्करणो के परस्पर विरोधी मूल पाठों को है, तब यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि यह सब
यहाँ दोहराना हम उपयुक्त नही समझते । स्वय पढ़े और क्या हो रहा है, क्यो हो रहा है, कैसे हो रहा है। हम मिलान करे तो स्थिति स्वतः स्पष्ट हो जायेगी। विपरीत जैसे अध्ययन अनुसन्धान कार्यो मे लगे लोग, जो एक ओर दिशा में बह रहे इस प्रवाह को रोकना होगा। इन परम श्रद्धेय आचार्यों और विद्वानो से जुड़े हो, दूसरी
-सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ओर अध्ययन-अनुसन्धान की वैज्ञानिकता के प्रति भी प्रति- आवासीय पता : ४६ विजयनगर कालोनी, भेलपुर, बढ हों, उनके समक्ष बड़े असमजस की स्थिति उत्पन्न हो
वाराणसी.२२१०१०