________________
१४२०२
नवरसों के लौकिक स्थानों की चर्चा को अत्यन्त संक्षेप एव स्पष्टता के साथ कविश्री ने एक ही छद मे निवद्ध कर दिया है यथा
सोभा में सिगार बसे वीर पुरषारथ में,
अनेकान्त
कोमल हिए में रस करुना बखानिए । आनंद में हास्य ण्ड मुण्ड में विरामं रुद्र,
वीभत्स तहाँ जहाँ गिलानि मत लिए । चिन्ता में भयानक प्रथाहता में अद्भुत,
माया को प्ररुचि तामै सान्त रस माननिए । एई नवरस भवरूप एई भावरूप,
इनको बिलेखिन सुदृष्टि जागे जानिए || (सर्वविशुद्धि द्वार, नाटक समयसार, पृ. ३०७-८ ) कविधी का रस और उनके स्थाई भावो मे परम्परानु मोदित व्यवस्था मे यत्किंचित परिवर्तन करने का मूलाधार आध्यात्मिक विचारधारा ही रही है। उनकी मान्यता है कि अध्यात्म जगत में भी साहित्यिक रसों का आनंद लिया जा सकता है, केवल रसास्वादन की दिशा बदलनी होगी । कविश्री बनारसीदास ने आत्मा के विभिन्न गुणो की निर्मलता और विकास में ही नवरसों की परिपक्वता का अनुभव किया है-यथा
गुन विचार सिंगार, वीर उद्यम उदार रुख । करना सम रस रीति हास हिरवं उछाह सुख ।। अष्ट करम दल मलन रुद्र, वरतं तिहि थानक । तन विलेछ बीभच्छ दुन्द मुख दसा भयानक ॥ अद्भुत धन्त बल चितवन, सांत सहज वंशगधुव । नवरस विलास परगास तब, जब सुबोध घट प्रगट हुव ॥ महाकवि बनामीदास कुन्दकुन्दनाय के रस सिद्ध कवि थे। वह आत्मानुभव को ही मोक्ष स्वरूप मानकर कहते है कि
वस्तु विचारत रावतं मन पावे विश्राम
"
रस स्वादत सुख ऊपजं, धनुभो याकौ नाम | (समस र नाटक उत्थानका छाक १७) 'समयमार नाटक' मे कविश्री का कहना है कि मेरी रचना अनुभव रस का भण्डार है
१. बनारसीदास का प्रदेव और मूल्यांकन, (द्वितीय) १६८७, पृ० ३२-४० ।
समयसार नाटक प्रकथ, अनुभव रस-भण्डार । याको रस जो जानहीं, सो पावें भव-पार ॥
(समयसार नाटक, ईटर के भण्डार की प्रति का अन्तिम अश छदांक १)
ससार की असारता और परिवर्तनशीलता को देखकर मन का विरक्त होना तथा आत्मिक प्रानंद में लोन होना ही परम शान्ति है। अष्ट कर्मों को क्षय कर निविकार अवस्था को प्राप्त कर परम आनद की उपलब्धि ही प्रमुख लक्ष्य है ।' महाकवि बनारसीदास के काव्य का मूल स्वर मन को सासारिकता से विमुख करके आत्मसुख की ओर उन्मुख करना ही रहा है। शान्त रस वस्तुतः निवृत्तिमूलक है और अन्य रस लौकिक होने के कारण प्रवृत्तिमूलक है।"
इस प्रकार कविधी बनारसीदास की रस विषयक अवधारणा महनीय है। उनके विचार से शान्तरस सब रसो का नायक है और शेष सब रम शान्तरस मे ही समाहित हो जाते है । आत्मानुभूति होने पर ही रसमयता की स्थिति उत्पन्न हुआ करती है। इन रसो के अन्तरंग मे जिन भावनाओ की व्यापकता पर बल दिया है वह स्व-पर कल्याण मे सर्वथा सहायक प्रमाणित होती है । आत्मा के ज्ञान गुण से विभूषित करने का विचार शृगार, कर्म निर्जरा का उद्यम वीर मभी प्राणियो को अपने समान समझने के लिए करा हृदय में उत्साह एवं सुख की अनुभूति के लिए हास्य, अष्टकर्मों को नष्ट करना रौद्र, शरीर की अशुचिता का चिन्तवन वीभत्स, जन्म-मरण के दुःख का चिन्नवन भयानक, आत्मा की अनन्त शक्ति को प्राप्त कर विस्मय करना अद्भुत तथा दृढ वैराग्यधारण कर आत्मानुभव मे लीन होना शान्तरस कहलाता है । ससार की क्षणभंगुरता, शरीर की निकृष्टता जीव को अज्ञानता आदि को अनेक हृदयग्राही उक्तियो से कविश्री बनारसीदास की रचनायें अनुप्राणित है।
मंगल कलश
३६४, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-२०२००१ ( उ० प्र० )
सन्दर्भ सूची आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' जैन पथ प्रदर्शक, वर्ष ११, अंक २४ मार्च ((शेष पृ० १६ पर)