Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 57
________________ महाकवि बनारसीदास की रस-विषयक अवधारणा Oडॉ० आदित्य प्रचण्डिया 'दोति' महाकवि बनारसीदास १७वी सदी के एक आध्यात्मिक विश्वनाथ ने शान्त रस को स्पष्ट करते हए 'साहित्य दर्पण' संत थे और थे वह काव्याकाश के जाज्वल्यमान नक्षत्र ।' में कहा है कि जिसमें न दुःख हो, न सुख हो, न कोई वह हिन्दी के सगुणभक्ति के प्रवर्तक महाकवि तुलसीदास चिन्ता हो, न राग-द्वेष हो, और न कोई इच्छा ही हो, के समकालीन थे और थे उनके घनिष्ठ मित्र । सृजनशील उसे शान्त रस कहते हैं-यथाव्यक्तित्व के धनी कविश्री ने अपनी-मोह-विवेक युद्ध, न यत्र दुखं न सुखं न चिन्ता न बनारसी नाममाला, बनारसी विलास, नाटक समयसार, द्वेष रागौ न च काचिदिच्छाः। अर्द्धकथानक-रचनाओं से साहित्य को समृद्ध किया है । रसः स शान्तः कथितो मुनीन्द्र: वह हिन्दी आत्मकथा साहित्य के आद्य प्रवर्तक है। जैन सर्वेषु भावेषु शम प्रधानः । अध्यात्म के पुरस्कर्ता कविश्री बनारसीदास के काव्य मे प्रश्न उठता है कि ऐसी दशा में तो शान्त रस की अध्यात्ममूला भक्ति का उत्कर्ष है। इनकी प्रत्येक रचना मिति स्थिति मोक्ष प्राप्ति के पश्चात् ही हो सकती है किन्तु मे अध्यात्म रस टपकता है। प्रस्तुत आलेख मे रससिद्ध इसका समाधान यह है कि यहाँ सुख के अभाव से तात्पर्य कवि श्री बनारसीदास की रस विषयक अवधारणा पर सांसारिक सुख से है अन्य सुख अथीत आत्मिक सुख से विवेचन करना हमारा मूलाभिप्रेत है। नही। रस काव्य की आत्मा है। काव्यपाठ, श्रवण अथवा संसार से वैराग्य भाव का उत्कर्ष होने पर शान्त रस अभिनय देखने पर विभावादि से होने वाली आनद परक की प्रतीति होती है। निर्वेद अथवा वैराग्य ही शांत रस चित्तवृत्ति ही रस है ।' मानव हृदय मे अनेक भाव स्थाई का स्थाई भाव है, समार की अमारता का बोध तथा रूप से विद्यमान रहते है। ये स्थाई भाव ही विभाव, परमात्म तत्त्य का ज्ञान इसका आलम्बन विभाव है, अनुभाव और संचारीभाव के सहयोग से रसदशा को प्राप्त सज्जनों का सत्सग, तीर्थाटन, धर्मशास्त्रो का चिन्तन आदि होते है। जैन आचार्यों की रस विषयक मान्यता रही उद्दीपन विभाव है, रोमाच, पुलक, अथ विसर्जन, ससार है-अनुभव । अनुभव हो रस का आधार है। यह अन्त- त्याग के विचार आदि अनुभाष है तथा धृति, मति, हर्ष, मखी प्रवत्तियों पर निर्भर करता है। आत्मानुभूति होने उद्वेग, ग्लानि, दैन्य, स्मृति, जडता आदि इसके सवारीपर ही रसमयता की स्थिति उत्पन्न हुआ करती है।" भाव हैं। भरतमुनि ने साहित्य मे आठ रसों को स्वीकृत कर जैन आचार्यों को रसो की परिसख्या में किमी प्रकार शांत रस को उपेक्षित कर दिया था किन्तु कालान्तर में का विवाद नही रहा। उन्होने परम्परागत नवरसो की शांतरस को नवम रस के पद पर प्रतिष्ठित किया गया स्वीकृति दी है। महाकवि बनारसीदाम ने अपनी अध्यात्म और मम्मट आदि अनेक आचार्यों के द्वारा निर्वेद को रचना 'नाटक समयसार' के माध्यम से बबरसो के सन्दर्भ स्थाई भाव स्वीकार किया गया। आचार्य मम्मट ने में मौलिक आध्यात्मिक उदात्त दृष्टि दी है। उन्होने शात निर्वेद के दो रूप माने हैं। तत्त्वज्ञान से जो निर्वेद होता रस को रम नायक स्वीकार किया है-यथाहै वह स्थाई भाव है और इष्ट के नाश तथा अनिष्ट की ___ नवमों सान्त रसनि को नायक । प्राप्ति से जो निर्वेद होता है वह सचारीभाव है।' आचार्य (सर्वविशुद्धिद्वार, नाटक ममयमार, पृ. ३०७)

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