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अनेकान्त
२०,४२,०२
चैतन्यही आत्मा है। 'वैशेषिक दर्शन' दर्शन के अनुसार आत्मा पृथ्वी आदि नव द्रव्यों में से एक है। उनके अनुसार जिस द्रव्य मे समवाय (नित्य) सम्बन्ध से ज्ञान रहता है वह आत्मा है । वह जीवात्मा परमात्मा के भेद से दो प्रकार का है । ०
सभ्य
आत्मा के अस्तित्व की तरह आत्मा के महत्व का प्रतिपादन भी सभी दर्शनो ने किया है। सम्यग्ज्ञान, दर्शन और सम्यक्वारित्र मुक्ति के मार्ग कहे गये है।" यह दर्शन और ज्ञान आत्मादि सात तत्त्वों का होना चाहिए ।" न्याय र्शन के अनुसार प्रमाण- प्रमेय ( आत्मा ) आदि के सम्यज्ञान से नि यस (मोक्ष) की प्राप्ति होती है ।" सारूप के अनुसार प्रकृति पुरुष के सम्यग्ज्ञान में केवल्प प्राप्त होता है" वेदान्त के अनुसार आत्मा का वास्तविक स्वरूप जानकर आत्मा परब्रह्म में लीन हो जाता है ।" उपनिषदों में आत्मा के महत्व का पुनः पुनः प्रतिपादन किया गया है। परमात्मप्रकाश की शैली उपनिषद से मिलती प्रतीत होती है । स्वय योगीन्द्र देव ने कहा है कि विद्वान् हमारी इस रचना में पुनरुक्ति दोष न देखे क्योकि प्रभाकर भट्ट को संबोधनो के लिए परमात्मका कथन बार-बार किया गया है।"
उपनिषदों में कहा गया है, जो आत्मा को जानता है, वह सबको जानता है-य. आत्मान जानाति सः सर्व विजानाति जम्दोग्य उपनिषद् में एक प्रसङ्ग आता है जिससे आत्मा का महत्व भली भाति स्पष्ट हो जाता है प्रजापति के मुख से एक बार देंगे और दैत्यों ने सुना कि जो आत्मा पापरात अजर, अमर, शोक रहित, भूखप्यास से रहित, सत्यकामनाओं तथा सत्यसकल्पो वाला ६, वह अप और जिज्ञासा के योग्य है। जो सांधक उस आत्मा का अन्वेषण या साक्षात्कार करके उसे विशेष रूप से आन लेता है वह सभी लोको और सभी कामनाओ को प्राप्त कर लेता है।" इसमे आत्मतत्त्व का महत्त्व और स्वरूप बताया गया है। बृहदारण्यकोपनिषद् में पाशव मैत्रेयी सवाद में कहा गया है-- अरे मैत्रेयी ! पति के सुख के लिए पत्नी को पति प्रेम नहीं होता अपितु अपने सुख के लिए होता है, पुत्र के सुख के लिए पुत्र, माता के सुख के लिए माता; लोगो के मुख के लिए लोग देवी के सुख
के लिए देव प्रिय नही होते किन्तु ये सब कारण हो प्रिय होते है । अतः आत्मा का मनन एव निदिध्यासन करना चाहिए ।"
परमात्मप्रकाश मे कहा गया है जो आत्मा को जान लेता है, वह परमात्मा हो जाता है -
आत्मसुख के दर्शन, श्रवण,
'जामद्द जाणह श्रप्यं श्रप्पा तामई सो जि देउ परमप्पा ।' दोहा ३०५ और भी-कि बहुए प्रणेण ।
'प्या भावहि विम्मलउ,
जो भावंत परमपड, सम्भइ एक्कखणे | दोहा १८
ऐसा ही भाव गीता मे भी कहा गया है, कहा गया है कि स्थितप्रज्ञ वह है जो आत्मा से आत्मा मे ही संतुष्ट रहता है
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोष्यते ।" -- गीता २ / ५५ इसी कारण गीता के छठे अध्याय मे तो बड़े ही स्पष्ट शब्दों मे कहा गया है कि आत्मा ही आत्मा का मित्र और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है
'उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । भाव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥' -- गीता ६/५
शुद्धात्मा का जो स्वरूप योगीन्द्रदेव ने परमात्मप्रकाश में वर्णित किया है वह जैनदर्शन का मानो निचोड़ है'जासु ण वण्णु रग गधु रसु, जासु रण सद्दु ण फासू । जासु ण जम्मणु-मरण खवि पाउ सिरंजणु तासु ॥ जासु प कोहु ण मोहु मड, जासु ण माय ण माणु । जासु ण ठागु ण भाग जिय, सो जि रिपरंज आणि ॥ प्रथिन पुष्णु ण पाउ जसु अस्थि ण हरिसु विसाउ अत्थि ण एक्कुवि दोसु, सो जि णिरंजणु भाउ ॥'
दोहे १९, २०, २१ अर्थात् जिसमे वर्ण, गध, रस, शब्द, स्पर्श, जन्म, मरण, क्रोध, मोह, मद, माया मान, स्थान, ध्यान, पुण्य, पाप, हर्ष-विषाद, दोष, धारणा, ध्येय, यंत्र, मंत्र, मंडल, मुद्रा नही है वह शुद्धात्मा है । जो निर्मल ध्यान से गम्य है वह आदि अन्त रहित जात्मा है।
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