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परमात्मप्रकाश एवं गीता में प्रात्मतत्त्व
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गीता में भी यही कहा गया है कि जिसमें जन्म-मरण वान् या ईश्वर नही है। गीता के अनुसार भगवान कृष्ण आदि दोष नही है वही आत्मा है। आत्मा का जन्म-मरण कृष्ण हैं और वे सभी पापो से छुड़ा सकते हैनहीं होता, जो मरता नही उसका जन्म कैसा और जो 'सर्व धम्पिरित्ज्य मामेकं शरणं व्रज । जन्मता नही उसका मरण भी कैसा । आत्मा न तो किसी जहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षमिष्यामि मा शुचः ।।' को मारता है और न ही किसी के द्वारा मारा जाता है ।
-- गीता८/६६ (नायं हन्ति न हन्यते २/१६) गीता कहती है ।
आत्मा के आकार के सन्दर्भ भी विभिन्न मत प्रचलित न जायते म्रियते वा कदाचिन,
है न्यायवैशेषिक साख्य मीमामा आदि दर्शन आत्मा या नायं मूत्वा भविता बा न भूयः ।
जीव को अनेक या सर्वव्यापक होने का उल्लेख मिलता प्रजो नित्य. शाश्वतोऽयं पुराणो,
है। आत्मा को अणु से अणु और महान् से महान् कहा न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥'
गया है । वेदो मे पुरुष या आत्मा को अगुष्ठ मात्र कहा -गीता २/२०
गया है। किन्तु आत्मा के आकार का सर्वाधिक सुन्दर परमात्मप्रकाश कहता है
और वैज्ञानिक समाधान जनदर्शन मे मिलता है। कहा 'णवि उप्पज्जइ वि मरइ, बंधु ण मोक्रव करेई।' गया है कि आत्मा स्वदेहप्रमाण है। जैसी देह हो आत्मा का
आकार भी वैसा ही हो जाता है। हाथी के शरीर में
- दोहा ६६ आत्मा हाथी के आकार की और चीटी के शरीर में चीटी जैसे कोई पुराने वस्त्र जोड़ नये वस्त्र धारण करता
के आकार की हो जाती है। आत्मा के प्रदेशो का सकोच है, वैसे ही प्रात्मा भी पुराना शरीर छोड़कर नया धारण
और विस्तार दीपक के प्रकाश की भांति होता है आचार्य करता है।" शस्त्र उसे काट नही सकते, आग जला नहीं कुन्दकुन्द ने लिखा है-- सकती, पानी गीला नही कर सकता और हवा सुखा नही
"जह पउमरायरयणं रिक्तं खीरे पभासयदि खोरं । सकती। गीता और परमात्मप्रकाश का शैली तथा भाव
तह देही देहत्त्थो सदेहमितं पभासयदि ॥"" गत साम्य देने का लोभ सबरण नही दे पा रहा है। जैसे दूध मे डाली गई पद्मरागमणि दूध को अपने तेज
और रंग से प्रकाशित कर देती है वैसे हो देह मे रहने तथा भाव गीता के निम्न श्लोको से मिलाइमे
वाला आत्मा भी अपनी देहमात्र को अपने रूप से प्रकाशित 'प्रच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेयोऽशोष्य एव च ।
कर देता है। योगीन्द्र देव ने परमतो का खण्डन करते नित्यः सर्वगतः स्थाणु रण्ययोऽयं सनातनः ॥
हुए आत्मा को स्वदेहप्रमाण कहा हैअध्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
(अप्पा देहपमाणु -दोहा ५१)। तस्मादेवं विदित्वन नानुशोचितुमर्हसि ।।'
इसी भाव को गीता में निम्न शब्दो म व्यक्त किया - गीता २/२४-२५
गया हैजैन दर्शन में आत्माएँ अनंत मानी गई है, पर गीता
'यथा प्रकाशयत्येक. कृत्स्नं लोकमिमं रविः । मे एक ब्रह्म की उपासना का वर्णन है। संसार मे जितनी
क्षेत्र क्षेत्रो तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥" भी आत्माएँ है वे उसी ब्रह्म का एकांश है । मभी आत्माएँ अर्जुन ! जिस प्रकार एक हो सूर्य इम सम्पूर्ण ब्रह्माड उसी ब्रह्म में मिल जाती है। पर जैन दर्शन के अनुसार को प्रकाशित करता है उसी प्रकार क्षेत्री-क्षेत्र का स्वामी, तपः साधना और ज्ञान के द्वारा प्रत्येक आत्मा परमात्मा आत्मा उस सम्पूर्ण क्षेत्र का प्रकाशित करता है। इस हो सकता है। प्रत्येक आत्मा अपने कर्म मे स्वतत्र है। प्रकार दोनों ग्रंथों में अपने-अपने दर्शनो के अनुसार आत्मअपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता वह स्वयं है कोई भग- तत्त्व का सुन्दर एव हृदयग्राही वर्णन है।