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परमात्मप्रकाश एवं गीता में आत्मतत्त्व
7 डॉ० कपूरचन्द जैन, संस्कृत विभागाध्यक्ष
भारतीय चिन्तन मे वैदिक और श्रमण संस्कृतियो का परमात्मप्रकाश' की रचना भी एक शिष्य द्वारा पूछे सहभाग रहा है। श्रमण सस्कृति की बौद्ध और जैन ये दो जाने पर उपदेश के रूप में हुई है। परमात्मप्रकाश के विचारधाराएं हुई, वैदिक विचारधारा सांख्य-योग, न्याय- रचयिता योगीन्द्रदेव (योगेन्द्र) ने परमात्मप्रकाश के रूप वैशेषिक, मीमासा-वेदान्त इन छह धाराओ मे प्रवाहित मै अध्यात्म शास्त्र का एक अनमोल रत्न भारतीय साहित्य हुई, इन्हें ही षड्दर्शन कहा जाता है। इन्हें आस्तिक दर्शन को दिया है। यथा नाम तथा विवेचन इस काम मे ३४५ भी कहते है। इनके अतिरिक्त एक चिन्तन और था दोहा है। जिनमे आत्मतत्त्व का सर्वाङ्क विवेचन हुआ है। जिसका सम्बन्ध मात्र इस जड- जगत से था। स्वर्ग, नरक, जिस शिष्य के प्रश्न पर यह ग्रंथ रचा गया, उसका नाम पुनर्जन्म जैसे सिद्धान्तो से उसे कुछ लेना-देना न था उसने प्रभाकर भट्ट था, जिसके पुन: पुन: निवेदन करने पर इस तो आत्मतत्त्व के परलोकगामी अस्तित्व को भी नकारा, ग्रथ की रचना हुई। इसके महत्त्व का प्रतिपादन करते इसे चार्वाक कहते है । जैन, बौद्ध और चार्वाक चूकि वेदो हुए योगीन्द्रदेव ने लिखा है कि इसका सदैव अभ्यास करने को प्रामाणिक नही मानते, अत: इन्हे नास्तिक कहा गया वालो का मोहकर्म दूर होकर केवलज्ञान पूर्वक मोक्ष की है।' गीता वैदिक दर्शनो में समाहित है उसमे सभी प्राप्ति हो सकती है।' आस्तिक दर्शनों के तत्त्व विद्यमान है। गीता महाभारत जैन और वैदिक दोनो दर्शन आत्मतत्त्व की सत्ता का ही एक अश है।
और उसका पुनर्जन्म स्वीकार करते हैं। मात्मा एक शरीर महाभारत की मूलकथा का वक्ता संजय है। धृत- को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है फिर चौथेराष्ट्र ने संजय से प्रपन किया, सजय ! युद्धेच्छु एकत्रित पाँचवे, फिर नरक-स्वर्ग में आता जाता है, इस प्रकार मेरे और पाण्डु के पुत्रो ने क्या किया। तब सजय ने सभी अनतकाल से इस संसार सागर मे भटक रहा है। लगभग योद्धाओ की तैयारी का वर्णन किया और कहा, महाराज ! सभी भारतीय और कुछ पाश्चात्य दर्शनो को प्रकृति इम अर्जुन ने जब अपने सामने अपने ही बान्धवो को देखा, तो ससार-भ्रमण को मिटाने में लगी है। यह बात अलग है वह युद्ध से विरक्त होने लगा और कहने लगा कि मैं ऐसा कि सभी के रास्ते अलग-अलग हैं, पर गन्तव्य तो सबका राज्य, ऐसी विजय और ऐसा सुख नहीं चाहता, जो स्व- एक ही है। जनवध से प्राप्त हुआ हो। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को चार्वाक दर्शन को छोड़कर सभी दर्शनो ने आत्मा के युद्ध मे प्रेरित करने केलिए समझाया, दूसरे शब्दो में गीता अस्तित्व को स्वीकारा है। भले ही उसे पुरुष, जीव, प्राज्ञ, की रचना श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उसके प्रश्न पर उप- तेजस आदि संज्ञायें दी हो। बौद्ध दर्शन के अनुसार विज्ञान देश है।
ही आत्मा है, बौद्ध आत्मा को क्षणिक मानते है । साख्य मे हिन्दुओं में गीता का वही स्थान है, जो मुसलमानो मे प्रात्मा के लिए पुरुष शब्द का प्रयोग हुआ है। पुरुष प्रकृति कुरान और ईसाइयों में वाइविल का है। व्यास ने गीता से भिन्न है, उसकी सख्या अनंत है।' साख्य जैन दर्शन की का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा है
तरह अनेक जीव (पुरुषो) की सत्ता स्वीकार करता है। "गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यः शास्त्रविस्तरः । वेदान्त के अनुसार शरीर इन्द्रिय आदि वस्तुओ का प्रकाया स्वयं पानाभस्य मुखपपाद्विनिः सुता ।।" शक नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्यस्वभाव आन्तरिक (प्रत्यक्)