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बर्ष ४२, कि.२
अनेकान्त
हैं। समय-समय के परिणाम हैं-द्रव्य से परिणाम कभी फिर अवसर मिले न मिले। भिन्न नहीं होते। ऐसा मालूम होता है कि भिन्न है पर यह सम्पदा और ये भोग तो अनेक बार मिले हैं भिन्न है नहीं। सुवर्ण द्रव्य है, कड़ा उसका परिणाम है। किन्तु क्या ये मेरे कुछ काम आये? सिवाय संसार बढ़ाने कड़ा होने से अलग तो नही है, उसी का परिणाम है। के। और हम हैं कि इन्हीं के जुटाने में अपना अनमोल यदि हम उस कड़े को कुण्डल में बदल दे तब भी सोना ही जीवन गवा रहे हैं। जो भी दिन बीत रहा है वह प्रायु रहेगा। इस प्रकार केवल दृष्टि गहरी करनी पड़ेगी- में घट रहा है और हम कहते हैं कि हमारी आयु बढ़ समझ में आ जायेगा । इसी भांति आत्मा गुण और पर्याय गई। कैसी विडम्बना है कि हम वस्तु-स्थिति को मानने का पुंज है-गुण और पर्याय पृथक-पृथक् नही है । उसको के लिए तैयार नहीं है । बन में आग लगी है और उसमें समझने के लिए आचार्यों ने रास्ता बना दिया है। ऊपर अनेक जीव जल रहे है और हम है कि उनके जलने का कहा गया है कि कारण और कार्य मे न तो समय भेद है तमाशा देख रहे है। हम नही सोचते कि यह आग हमारी
और ना ही स्थान भेद है वह बात सही उतरती है। ओर बढ़ रही है । हमें अभी भी समय है कि इस भयानक जिस समय कड़ा टूटा उसी समय कुण्डल की उत्पत्ति हुई- वन से निकल सकते है। हमारे पास साधन भी है । बस, एक ही समय है और एक ही स्थान है। बात बड़ी अट- थोड़ा-सा उद्यम करना पड़ेगा। अन्यथा, फिर वही चतुर्गति पटी लगती है, किन्तु विचार करने पर ठीक बैठ जाती का चक्कर न जाने कब तक चलता रहेगा। और पुनः है । इसी तरह आत्मा पर घटा लें।
मनुष्यगति, उत्तम कुल, जैन धर्म की शरण निरोग शरीर लब्धि क्या है? आत्मा के परिणामों में चार लब्धियो कब मिल सकेगा? मिल सकेगा या नही भी? इसका के बाद जब करणलब्धि होती है तब वह सम्यक्त्व मे क्या भरोमा ? ये स्त्री-पुत्र-सम्पदा, वैभव और ये समाज कारण पड़ती है। वह कारण और क्या है? वह भी इसी तो अनेक बार मिले है। पर, क्या इनसे मेरा कभी हित जीव का परिणाम है। जिसको सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई हुआ है ? नहीं हुआ। यदि हुआ है तो इनसे अहित ही है उसके परिणामों में जो उत्तरोत्तर निर्मलता है वही हुआ है। परिणाम कारण पड़ेंगे। इस प्रकार हमें उस पदार्थ को
२/४, असारी रोड, दरियागंज, प्राप्त करने में अभी से लग जाना चाहिए। क्या पता
नई दिल्ली-२
(पृ० १८ का शेषांश) २. जैन कवियों के हिन्दी काव्य का काव्यशास्त्रीय मूल्या- ६. काव्यकल्पद्रुम, प्रथम भाग, रसमजरी, सेठ कन्हैया
खून, डॉ. महेन्द्र सागर प्रचण्डिया, आगरा विश्व- लाल पोद्दार, पृ. २३४ । विद्यालय द्वारा स्वीकृत डी. लिट्. का शोधप्रबन्ध, ७. साहित्यदर्पण, आचार्य विश्वनाथ, डॉ. सत्यव्रत शास्त्री सन् १९७४, पृ० ३२६ ।
की टीका सहित, तृतीय परिच्छेद, पृ० २६५ । ३. नाट्यशास्त्र, आचार्य भरत, षष्ठ अध्याय, सम्पादक
८. जैन हिन्दी पूजा काव्य : परम्रा और आलोचना, डॉ. डॉ० रघुवंश, पृ० २०४। ४. जैन हिन्दी पूजा काव्य : परम्परा और आलोचना,
आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', पृ० १६१ । डा. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', पृ० १६० ।
६. रस सिद्धान्त, डॉ. नगेन्द्र, पृ० २४. । ५. काव्यदर्पण, प० रामदहिन मिभ, पृ० २०८। १०. काव्यदर्पण, पं० रामदहिन मिश्र, पृ० २१० ।