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१०, वर्ष ४२, कि० २
अनेकान्त रहने का उपदेश दिया है। इस पक्ष में जो जीव परजीवों अन्य प्राकृत अथवा प्राकृतों में परिवर्तन करना तत्कालीन के घातरूप हिंसा से विरत होता है, अथवा विरत रूप अथवा तद्देशीय संस्कृति का लोप करना है। अतः उपर्युक्त परिणामो का कर्ता होता है, उससे वह मुक्ति को प्राप्त प्रकार के परिवर्तन जनहित में नहीं है। साथ ही इस परिकरता है । यह आचार्य कुन्दकुन्द का आध्यात्मिक पक्ष है। वर्तन से हमारी सांस्कृतिक परम्परा का भी ह्रास होगा,
दूसरा पक्ष यह है कि जब आचार्य कुन्दकुन्द जीवो के विशेषकर विगम्बर संस्कृति का, इसमें सन्देह नहीं। उत्पनि स्थान आदि की विवेचना करते हैं तो उससे तीन
आचार्य कुन्दकुन्द जिस समय पैदा हुए उस समय लोक के जीवो की रक्षा एक सामान्य प्राणि अपने आचार
संस्कृत भाषा विद्वज्जन मान्य थी। अतः अपने को विद्वानो विचार अन्यया परिणामो के माध्यम से कैसे कर सकता
की श्रेणी मे लाने के लिए संस्कृत-भाषा में ग्रन्थ-रचना है ? इसका ममावेश है। यह आचार्य कुन्दकुन्द का लोक
करना गौरव की बात थी। किन्तु प्राचार्य कुन्दकुन्द ने कल्याण की भावना का उत्तम पक्ष है। यद्यपि जनदर्शन मे
वर्गविशेष की भाषा की उपेक्षा की और तत्कालीन जनसाधु को स्वार्थी-आत्मार्थी बनने का उपदेश दिया गया है,
भाषा, जो प्राकृत थी, उसमें अपने साहित्य का सृजन क्योंकि स्वार्थी-आत्मार्थी ही परमार्थी है, किन्तु चूकि हम
किया। यह उनकी भाषा विषयक क्रान्ति थी। इस क्रान्ति स्वयं लोक मे रहते हैं, इसलिए लोक कल्याण की भावना
के मूल मे आचार्य कुन्दकुन्द की लोकमगल भावना ही ही हमारे जीवन मे प्रमुख है। अत: लोककल्याण को
प्रधान थी। वे जन-जन के आचार्य थे। उनके विचार भ वना को उत्तम पक्ष कहना युक्तियुक्त है।
सामान्यजनो की भाषा मे सामान्यजनों के लिए थी। इसके अतिरिक्त और अनेकानेक पक्षो मे से एक अन्य उनके साहित्य के माध्यम से सामान्य पढ़ा-लिखा व्यक्ति पक्ष भी गम्भव है और वह है आचार्य कुन्दकुन्द का मनो.
भी आत्म-तत्त्व का बोधकर स्व-पर कल्याण के लिए प्रयत्न वैज्ञानिक पक्ष । वे जीव की मनोदशाओ का विश्लेषण
कर सकता था। करने में गिद्धहस्त है । अद्वितीय है। यह बात उनके द्वारा
उपर्युक्त कथन के माध्यम से हम इस निष्कर्ष पर किये गये जीवो के भाव विवेचन से स्पष्ट हो जाती है।। पहचते है कि आचार्य कुन्दकन्द का साहित्य अध्यात्म से
जिस भाषा के कारण आचार्य कुन्दकुन्द की विशिष्ट ओतप्रोत तो है ही. साथ ही लोकमंगल की भावना से भी पहचान है। जिम भाषा के लिए डॉ० पिशल ने एक अनस्यन है। विशेष प्रकार की प्रकार की प्राकृत घोषित करते हुए जैन आचार्य कुन्दकुन्द को द्रव्यानुयोग का विशेषज्ञ माना शौरसेनी प्राकृत नाम दिया उसी प्राकृत को अब हम परि- जाता है, किन्तु वस्तुतः वे चारों अनुयोगों के विशिष्ट वतिन कर सामान्य प्राकृतो का रूप दे रहे है और आचार्य
ज्ञाता थे । द्रव्यानयोग के अन्तर्गत लिखे गये साहित्य का कुन्दकुन्द + इस द्विगहस्राब्दि समारोह के अवसर पर जहाँ अन्तरङ्ग परीक्षण-अनुशीलन करने से यह बात और भी उनके भक्त हम लोग उनके नाम और काम को प्रकाश में स्पष्ट हो जाती है। लाने का प्रयास कर रहे है, कुछ लोग उनकी विशिष्ट
आचार्य कुन्दकुन्द का व्यक्तित्व अन्तर्मुखी था। वे प्राकृत का परिवर्तन करके उनकी पहचान खोने में लगे आचार की चर्चा करते हा अन्त मे निश्चयनय के माध्यम है । यह खेद का विषय है।
से आत्मतत्त्व पर पहुच जाते हैं। वे अपने लक्ष्य के प्रति सम्प्रति विद्वानो द्वारा मान्य छः प्राकृत भाषाएं हैं, इतने सजग है, रचे-पचे है कि जाने और अनजाने में भी जिनकी उत्पत्ति काल-भेद अथवा त्यान-भेद के कारण हुई वे लक्ष्य से चकते नहीं हैं। लक्ष्यभ्रष्ट नहीं होते हैं। ये है। प्रतः तत् तत् प्राकृत भाषाओ मे तत्कालीन अथवा सभी आचार्य कन्दकन्द के अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के सबल तत्स्थानीय संस्कृति का समावेश है। ऐसी स्थिति में उन- प्रमाण है। उन प्राकृतो का किसी एक प्राकृत अथवा काल-विशेष की आचार्य कुन्दकन्द के साहित्य को स्थूल रूप से दो प्राकृत मे समावेश करना अथवा जैन शोरसेनी प्राकृत का भागो में विभाजित किया जा सकता है-आध्यात्मिक