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सामयिक-प्रेरणा :---- श्रुतदेवता की मूर्तियाँ खण्डित होने से बचायें
L] डा० गोकुलचन्द्र जैन, अध्यक्ष, प्राकृत एवं जैनागम विभाग यह सांस्कृतिक चेतना का आह्वान है। विशेषरूप से धरसेन की चिन्ता और श्रुत सरक्षण का दायित्वबोध दिगम्बर परम्परा के अनुयायियों के समक्ष यह चुनौती है। 'तीर्थकर, जुलाई १९८८) शीर्षक निबन्ध मे हमने ऐसे अपनी नादानी और गैजम्मेदारी के कारण हम द्वादशाग कई विषयो की चर्चा की थी। कई ऐसे मुद्दो की ओर श्रुतज्ञान की अमुल्य निधि को सुरक्षित नही रख पाये। सकेत किया था, जिससे हमारे वर्तमान प्राचार्यों, साधुबौद्धो न बार-बार सगीतियो का आयोजन किया। भग- सन्तो, श्रावको, श्रीमन्तो, पण्डित-प्रोफेसरो की आँखें खलनी वान बुद्ध के उपदेशो का मगायन किया। इन प्रयत्नों के चाहिए। कुछ प्रतिक्रियाये हुई भी। पर उतना पर्याप्त फलस्वरूप विपिटक मे बुद्धवचन सुरक्षित हो गये और नहीं है। तीर्थकर के मम्पादक चाहते है कि जो लेख वह आज संसार भर में उपलब्ध है। प्रबताम्बर परम्पग ने छापे, उमे अपन भेजा जाये मैंने इसका निर्वाह किया। भगवान महावीर क 3 देशों को मृक्षित करने के लिए उस लेख को प्रत्येक दिगम्बर जैन के हाथों मे पहचना कई बार वाचनाएं आयोजित की। श्रुत परम्परा स जिस चाहिए । तीथकर के सम्पादक से मैं अनुरोध करूँगा कि जितना स्मरण रह पाया था, उसे सबके समक्ष प्रस्तुत वे इसका कोई मार्ग खोजे और इन ‘यक्ष प्रश्नो' पर गहरी किया। इस बात की समीक्षा की गयी कि कितना याद बहस करायें। रह गया है, कितना विस्मृत हो गया है। पाठ भेद भी
लगभग इसी लेख के क्रम में 'आचार्य कुन्दकुन्द पर सामने आय । | ॥र भी अन्तत. सामूहिक प्रयान फनीभूत
विद्यावारिधि की उपाधि' लिखा गया। एक से अधिक हुए । वलभी म आगमा को पुस्तकारूढ करके सुरक्षित कर दिया गया । हजारो वर्षों से साधु-सन्त और श्रावक
पत्रो में छपा। यह मात्र समाचार नही था। कतिपय उस पुस्तकारूढ श्रुत ज्ञान की सुरक्षा म निरन्तर सावधान
कडवी सच्चाइयां भी थी। काफी प्रतिक्रियाये आयी। कुछ रहे । उसो का मुफल है कि. श्वताम्बर परम्परा में आगम
ने अपनी दाढी ३ तिनके को सहलाया और फिर सावऔर आगमिक साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है।
धानी से उमी मे खोस लिया। आचार्य कुन्दकुंद ने लिखा
है कि 'अपराधी शकित होकर डरता हुआ घूमता है पर दिगम्बर परम्परा - द्वादशाग का सुरक्षा के लिए
निरपराधी नि.शंक घूमता है।' (समयसार) अब स्थिति प्रयत्न करने का एक भो सन्दर्भ उपलब्ध नहीं होता।
उलट गयी है। जो गलती कर रहा है, वह जान बूझकर श्वेताम्बर परम्परा में जिन वाचाओ के उल्लेख है, उनके
वैसा कर रहा है। इसलिए निडर है। वह नेता है, विषय में भी कोई जानकारी नही है। कारण जो भी रह
आचार्य है, श्रीमन्त है, पण्डित-प्रोफेसर है । युवा ऊर्जा को हो, पर परिणाम हमारे सामने है । दिगम्बर परम्परा मे
वह बहका सकता है । सब तरह से सशक्त और सन्नद्ध है। द्वादशांग श्रुतज्ञान या एक भी मूल आगम उपलब्ध नही
इमलिए निडर है। आचार्य कुन्दकुन्द कह सकते है कि है। क्या हम अपने पुरखो के इस अनुतरदायित्व की
कही चूक हो जाये तो उसे छल न समझें-'जइ चुक्केज्ज समीक्षा करेगे?
छल ण घेतव्व ।' आज जो भी लिखा जा रहा है, कहा श्रुतज्ञान की गुरक्षा के दायित्वबोध का सर्वप्रथम जा रहा है। उसका लेखक, सम्पादक प्रवक्ता, प्रवचनकर्ता उदाहरण आचार्य धरसेन का मिलता है। उसी के प्रति- मानता है कि उसे सर्वज्ञभाषित माना जाये। उसके सामने फल षट्खडागम इस पीढ़ी को उपलब्ध हो सका । 'आचार्य प्रश्न चिह्न लगाने का सवाल ही नहीं खड़ा होता ।