Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 44
________________ ४, वर्ष ४२, कि०२ अनेकान्त कुन्द के गुरु रूप मे उल्लेख होने लगा हो। कषायपाहुड के उद्धारकर्ता आचार्य मुणधर (लगभग ५०इसमें तो कोई सन्देह नहीं है कि आचार्य कुन्दकुन्द से ७५ विक्रम अर्थात् ई० पू०७-१८ ई.); षट्खण्डागम मूलतः दक्षिणापथ के निवासी थे-अधिक सम्भावना यही के उद्धारकर्ता आचार्य धरसेन (लगभग विक्रम ६७है कि वे द्रविड कन्नड प्रदेशो के मध्यवर्ती सीमा प्रदेश के १३२ अर्थात् सन् ४०--७५ ई०), भगवती आराधना के निवासी हो। कोण्डकुन्द नाम स्वय द्रविड़ झलक लिये कर्ता शिवार्य (लगभग ५७-१०७ विक्रम अर्थात सन् प्रतीत होता है पोर कन्नड प्रदेश का कोई स्थान नाम ०-५० ई०), पउमचरिउ के रचयिता विमलार्य (विक्रम जैसा लगता है। तुम्बलराचार्यआदि अन्य कई दक्षिणी ६० अर्थात् सन् ३ ई०), तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वामी गुरुओं के नाम भी उनके जन्म ग्राम के नाम पर प्रसिद्ध (लगभग १००-१५० विक्रम अर्थात् सन् ४३-६३ ई.) हुए। वर्तमान गुन्टकल रेलवे स्टेशन से ४-५ मील दूर आदि के प्रायः समसामयिक थे। जैन परम्परा में लिखित कोण्डकुन्द नाम का एक ग्राम आज भी विद्यमान है और ग्रन्थ प्रणयन करने वाले प्रारम्भिक आचार्यों में प्रमुख थे । परम्पग विश्वास उमे कुन्दकुन्द के जीवन से सम्बन्धित विक्रम १२३ (सन् ६६ ई०) में अर्हद्बलि द्वारा मूलसंघ का नन्दि, सेन, देव, सिंह यादि सघों मे विभाजन करने करना है। इस ग्राम के निकटवर्ती पहाडी की गुफाओ मे के तथा विक्रम १३६ (सन् ७६ ई०) मे दिगम्बर-श्वेताम्बर उन्होंने तपश्चरण किया था ऐसा विश्वास किया जाता सम्प्रदाय भेद होने के पूर्व ही ये हुए प्रतीत होते हैं । है। इसी प्रकार नन्दी पर्वत नाम की एक अन्य पहाड़ी को परम्परा लिखित एवं पौराणिक अनुश्रुतिया, साहित्यगत भी कुन्दकुन्द का तपस्या स्थान बताया जाता है । यह तो एवं शिलालेखीय उल्लेख और क्रम, अन्य प्रसिद्ध जैनाप्राय: स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द सुदूर दक्षिण में उत्पन्न हुए चार्यो एव ग्रन्थकारो से उनका पूर्वापर आदि सभी दृष्टियों थे, कर्णाटक देश को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया था, से उनवा उपरोक्त समय ठीक प्रतीत होता है। अपनी पाण्ड्य-पल्लव आदि द्रविड देशो में भी उन्होने पर्याप्त भाषा, शैली, विषय आदि की दृष्टि से भी वे आद्यकालीन प्रचार किया था और क्या आश्चर्य तमिल सगम (नमिल ग्रन्थकार सूवित होते है। अन्य विद्वान भी उन्हें विक्रम जैन सध जो बाद में तमिल साहित्यिक सगम मात्र रह की पहली-दूसरी शती का विद्वान अनुमान करते है। गया) की स्थापना एवं प्रगति में उन्होंने योग दिया हो। कुन्दकुन्द अपने किसी ग्रन्थ में किसी पूर्ववर्ती ग्रन्थ या ऐसे महान युग प्रवर्तक आचार्य ने भारतवर्ष के अन्य भागो ग्रन्थकार का उल्लेख नही करते-केवल गुरु परम्परा से मे भी विहार किया होगा और सुदूर होने पर भी उत्तरा प्राप्त जिनागम या द्वादशांग श्रुत के ज्ञान को ही अपना पथ के तत्कालीन सर्वमहान जैन सास्कृतिक केन्द्र और आधार सूचित करते है। उनके ग्रन्थो में अनेक गाथाएं सरस्वती आन्दोलन के स्रोत मथुरा नगर की भी यात्रा ऐसी है जो श्वेताम्बर आगमो में भी पाई जाती हैंकी होगी। इससे भी यह प्रमाणित होता है कि उन सबका कोई नन्दिसघ को पट्टावलियो से कुन्दकुन्द का समय वि० अभिन्न प्राचीन मूल स्रोत था, दोनो ही परम्परा के '६-१०१ (ई०पू०५४४ ६०) प्रकट हाता विद्वानों ने उनके सरक्षण का प्रयत्न किया। है जो प्राय: ठीक ही प्रतीत होता है। वे भद्रबाहु द्वितीय है। व भद्रबाहु ति परमपरा सम्मत एवं बहुमान्य मतानुसार आचार्य (विक्रम २०-४३ अर्थात् ई०पू० ३७-१४) के साक्षात कुन्दकुन्द विक्रम सवत् ४६ अर्थात् ईसापूर्व ८ में आचार्य शिष्य या कम से कम प्रशिष्य अवश्य थे। मथुरा के पद पर प्रतिष्ठित हए, ५२ वर्ष पर्यन्त उस पद का उपभोग कुमारनन्दि (विक्रम ५८-७८ अर्थात् सन् १-२१ ई०), करके सन् ४४ ई० मे, ८५ वर्ष की आयु मे वह स्वर्गस्थ भद्रबाहु द्वितीय के पट्टधर लोहाचार्य (विक्रम ४.--६५ हुए। यह भी अनुभुति है उन्होंने बाल्यावस्था में ही अर्थात ई०पू० १४-३८ ई०). उनके उत्तराधिकारी एवं मुनि दीक्षा ले ली थी। मुनि दीक्षा के लिए न्यूनतम अविभक्त मूलसघ के मन्तिम सघाचार्य अर्हद्बलिगुप्तिगुप्त निर्धारित वय ८ वर्ष है, ऐसी मान्यता है। एक मतानुसार (विक्रम ६५---१२३ अर्थात् सन् ३८ ई०-६६ ई.), उन्होने ८ वर्ष की आयु में दीक्षा ली थी, दूसरे मत से ११

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