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कुम्बकम्दाचार्य
स्वामी तीर्थकर के समवसरण में जाकर उनके दर्शन किये कुन्दकुन्द का ही अपरनाम प्रसिद्ध हो गया प्रतीत होता है। थे और साक्षात् केवली भगवान के मुख से धर्म श्रवण गृध्रपिच्छ कुन्दकु-द के शिष्य उमास्वामी के उपनाम के किया था, इत्यादि । किन्तु इन सब अनुतियो को ऐति- रूप मे भी प्रसिद्ध है। सम्भवतया दोनो ही प्राचार्यों ने हासिक घटनाएं सिद्ध करने का कोई साधन नही है। मयरपिच्छ के स्थान पर गधपिच्छ का उपयोग अल्पाधिक
कर्णाटक देश के शिलालेखो मे इन आचार्य का नाम काल के लिए किया हो इससे यह उन दोनो के लिए ही बहुधा 'कोण्डकुन्द' रूप में पाया जाता है। इसी का भ्रुति- विशेषणरूप से प्रयुक्त होने लगा हो। वक्रग्रीव नाम के मधुर संस्कृत रूप 'कुन्दकुन्द' है। देवसेन (विक्रम ६६० एक आचार्य (लगभग ५७५ ई.) द्रविड़सध के संगठनकर्ता अर्थात् सन् ६३३ ई०), इन्द्रनन्दि (लगभग १००० विक्रम वज्रनन्दि (५८२-६०४ ई.) के महयोगी थे। अत. अर्थात १०वी शताब्दी ई वी) और जयसेन (लगभग वि० निश्चय से नही कहा जा सकता कि किमी भूल के कारण १२००) ने इनका उलनेख 'पद्मनन्दि' नाम से किया है। अथवा कुन्दकुन्द का एक विशेषण होने के कारण यह नाम कुछ पूर्वमध्य एवं मध्यकालीन शिलालेखों एवं ग्रन्थकारो भी उनके लिए प्रयुक्त किया गया। एलाचार्य म तमिल ने वक्रग्रीव, गृध्रपिच्छ और एलाचार्य भी कुन्दकन्द के ही भाषा के प्राचीन सगम साहित्य मे पगिद्ध कुरल काव्य के अपरनाम रहे बनाये है। बट्ट केरि या बट्टके राचार्य भी मूलका का माना जाता है। कुछ विद्वानो की धारणा है उनका एक नामान्तर बताया जाता है। गिरनाट साहब कि उस अपूर्व काव्य के कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द ही है। के अनुमार महामति भी उन्ही का एक नाम था। किन्तु सम्भवतया तमिल देश में धर्मप्रचार करते हुए उन्हे एलाससार देहभोगो से विरक्त ये तशेधन योगीपवर निर्ग्रन्था- चार्य नाम प्राप्त हुआ हो और इसीनिर बाद में इसका चार्य अपने सम्बन्ध में स्वय प्रायः कोई सूचना नही देत। प्रयोग उनके लिए शिलालेखादि में हुआ। मूलाचार के केवल उनकी 'बारस अणुवेक्वा' नामक एक रचना के कर्ता बट्टके राचार्य नाम से प्रसिद्ध है और अब इसमें कोई अन्त में उनका 'कुन्दकन्द' नाम उपलब्ध होता है और मन्देह नहीं रहा है कि वह ग्रन्थ कु-दकुन्द की ही कृति है।' 'बोधपाहुई' नामक एक रचना मे किय गय इस उल्लेख .. अत: यह (बट्टकेराचार्य,= वर्तकाचार्य अवर्तकाचार्म) उन्ही
सद्दवियारो हूओ भासा सुत्तेमु ज जिणे कहिय। का एक उपनाम रहा होगा। सो तहकहियं णाय सीमण य भद्दबाहस्स ॥
जहाँ तक उनके गुरुओं का प्रश्न है, पट्टावली के जिनसे प्रकट होता है कि उनके गुरु भद्रबाहु थे। उनके
चन्द्र के शिष्य पद्मनन्दि कुन्दकीर्ति होने से जिनचन्द्र का, एक टीकाकार जयसेन ने तथा प्रभाचन्द्र (लगभग ११५० ।
जो कुन्दकुन्द के लगभग ५० वर्ष बाद हये है, उनके गुरु विक्रम अर्धात् सन् १०६३ ई०) ने कुन्दकुन्द के गुरु का ।
होने का प्रश्न ही नही है । कुन्दकन्द के मुख्य एवं दीक्षागुरु नाम कमारनन्दि बताया है। नन्दिसघ की एक पट्टावली भद्रबाह द्वितीय (विक्रम २०-४३ अर्थात ईसापूर्व ३७मे अर्हबलि के प्रशिष्य और गाघनन्दि के शिष्य जिनचन्द्र १४) ही रहे प्रतीत होते है। कमारनन्दि, जो कार्तिकेयाको कुन्दकुन्द का गुरु बताया है। शिलालेखों मे कुन्दकुन्द न्प्रेक्षा क क कुमार या स्वामी कुमार से तथा मथुरा का प्रायः भद्रबाहु के उपरान्त और उमास्वामी, समन्तभद्र, के वर्ष ६७ या ८७ (पूर्व शक सवत्) अर्थात् विक्रम ५८ सिंहनन्दि आदि के पूर्व उल्लेख किया गया है।
या ७९-सन् १ या २१ ईस्वी के शिलालेख में उल्लिखित जहाँ तक कुन्दकुन्द के विभिन्न नामो का सम्बन्ध है, कुमारनन्दी से अभिन्न प्रतीत होते है। सम्भव है उन्हे महामति तो विशेषण मात्र है-शिलालेखो से यह बात वयोवृद्ध होने के नाते कुन्दकुन्द गुरु तुल्य मानते हो--- स्पष्ट है । उसे भूल से ही उनका अपर नाम समझ लिया सम्भव है जब कुन्दकुन्द मथुरा (उत्तरी भारत) मे पधारे गया है। पपनन्दि उनके प्रशिष्य कुन्दकीति का अपर नाम हो उस समय ये कुमारनन्दि मथुग के तत्कालीन गुरुआ रहा प्रतीत होता है, कालान्तर में दोनो गुरुओ का भेद मे वृद्धप्रमुख हो और कुन्दकुन्द ने उनका गुरु तुल्य सम्मान भल जाने से और कुन्दकीति के विस्मृत हो जाने से यह किया हो। इसी आधार पर कालान्तर में उनका कुन्द