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और कर्मठों के प्रतीत अपमानों और नवीन गतिविधियों कटसत्य के लिए हमें क्षमा करेंगे। को पढ़ सुनकर कभी-कभी तो हमारा मन खीझ-सा उठता
हमारी तो दृढ़ धारणा है कि जैनधर्म त्यागरूप अपरिहै और सोचता है
ग्रही धर्म है। जब तक पैसे जैसे परिग्रह के बल पर धर्म 'करि फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराह । का स्थायित्व चाहते रहेंगे; भेटे, सम्मान प्रादि दे-लेकररे गंधी मति अंध तू, अतर दिखावत काह ॥' जयन्तियों, उत्सव, सेमीनार, यहाँ तक कि जय जयकार भी
पैसो के बल पर करते कराते रहेंगे तब तक -चाहे धर्मप्रसंग में हम यह भी कहना चाहेगे कि --जिन पर समाज का कोई ऋण नहीं है या जो ऋण से बेबाक हो
प्रचार के नाम पर कितनी ही यात्राएँ कर कितने ही चुके है उनकी बात दूसरी है -पेशेवर याचकों की जमात
भाषणों का, अखबारों, कैसिटों, रेडियो या टेलीविजनों से तो कछ कहना ही व्यर्थ है। हम तो अपनी जानते है--
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का उपयोग क्यों न किया जाय; धर्म और धर्मात्मा कर्मठों हम पर समाज का ऋण है। हम इसी में बटे. पढे-लिखे का ह्रास ही होता रहेगा। और सदा इसी में काम करते रहे हैं और समाज ने अपने यदि धर्म और कर्मठों की इज्जत रखना है तो समस्त में रहकर जीने दिया तो समाधि भी इसी में चाहेगे। पाखण्डों को छोड---स्व-प्राचार पालन का मूर्त अान्दोलन सोचते हैं प्रायु का क्या भरोमा ? न जाने कब सांस छेड़ना होगा। जब नेता लोग, विद्वान, व्याख्याता, गृहस्थ निकल जाय। कही ऋणी होकर ही भव-भव मे भटकते और त्यागी कुन्दकन्द की वाणी रूप स्व-प्राचार में प्रवृत्त न फिरे। अत उऋण होने के प्रयास में सचाई बांट देते होंगे-तब धर्म स्वयं चमक कर सामने खड़ा दिखेगा और है। आशा है हमारी सद्भावना का ख्याल कर पाठक इस कन्दकन्द द्विसहस्राब्दि भी तभी सफल होगी।
(पृ० ३० का शेषाश) है। श्रावक समय निकाल कर अपनी शक्ति क अनुमार के पालन बिना हमारे मारे उपक्रम कही दो-नम्बर (यानी देव-पूजा आदि करे । पर, बहुन कम लोग ऐसे होगे जो इन नियम तोडने) के तो नहो ? जबकि जैन मात्र को दोधार्मिक कर्तव्यो को पूरा करते हो ! आज तो षट्कर्म नंबरी कामो से बचना चाहिए। जैन की वत्ति तो 'मन में क्या ? जब बहत से लोगों को माधारण नियमो-पानी होय सो वचन उचरिण, वचन होय मो तन सो करिए' छानकर पीने, रात्रि भोजन न करने, तीन मकारो का जैमी होती है न कि 'हाथी के दांत खाने के और, दिखाने त्याग करने आदि तक का ज्ञान नही। तब पट क्रियाओ के और जमी। अन इस अवसर पर हर जैनी का कर्तव्य के करने का प्रश्न ही कैसा ? जब श्रावको का ध्यान भी जैन के प्रारम्भिक नियमी है।
है कि वह अपने योग्य आवश्यकों का अवश्य पालन करे के पालन पर होगा, तभी द्विमहस्राब्दी मनाना गफल और आगे के जीवन में भी उनके निर्वाह करने की सही होगा। सोचना तो यह भी होगा कि कुन्दकुन्द के आदेशो प्रतिज्ञा करे । शुभमस्तु सर्व जगतः । -सम्पादक
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