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सल्लेखना अथवा समाधिमरण
अपने परिणामों के अनुसार प्राप्त जिन आयु, इन्द्रियों में उस शरीर को दुष्ट के समान छोड़ देना ही श्रेयस्कर और मन, वचन, काय इन तीन बलों के संयोग का नाम है।' ' जन्म है और उन्हीं के क्रमशः अथवा सर्वथा क्षीण होन को वे असावधानी एवं आत्मघात के दोष से बचने के मरण कहा गया है। यह मरण दो प्रकार का है-एक लिए कुछ ऐसी बातों की ओर भी सकेत करते है, जिनके नित्य-मरण और दूसरा तद्भव-मरण । प्रतिक्षण जो आयु द्वारा शीघ्र और अवश्यंभावी मरण की सूचना मिल जाती आदि का ह्रास होता रहता है व नित्य-मरण है तथा है। उस हालत मे व्रती को आत्मधर्म की रक्षा के लिए उत्तरपर्याय की प्राप्ति के साथ पूर्व पर्याय का नाश होना सल्लेखना मे लीन हो जाना ही सर्वोत्तम है। तद्भव-मरण है । नित्य-मरण तो निरन्तर होता रहता है, इसी तरह एक अन्य विद्वान ने भी प्रतिपादन किया उसका आत्म-परिणामो पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। है किपर तद्भव-मरण का कषायो एव विषय-वासनाओ की 'जिस शरीर का बल प्रतिदिन क्षीण हो रहा है, न्यूनाधिकता के अनुसार आत्म-परिणामो पर अच्छा या भोजन उत्तरोत्तर घट रहा है और रोगादिक के प्रतिकार बुरा प्रभाव अवश्य पड़ता है : इस तद्भव-मरण को सुधा- करने की शक्ति नही रही है वह शरीर ही विवेकी पुरुषों रने और अच्छा बनाने के लिए ही पर्याय के अन्त मे को यथाख्यातचा रेत्र (सल्लेखना) के समय को इंगित 'सल्लेखना' रूप अलोकिक प्रयत्न किया जाता है। सल्ले- करता है"।' खना से अनन्त ससार की कारणभूत कषायों का आवेग मृत्युमहोत्सवकारकी दृष्टि मे समस्त श्रुताभ्यास, घोर उपशमित अथवा क्षीण हो जाता है तथा जन्म-मरण का तपश्चरण और कठोर व्रताचरण की सार्थकता तभी प्रवाह बहुत ही अल्प हो जाता अथवा सूख जाता है। जैन जब मुमुक्ष श्रावक अथवा साधु विवेक जागृत हो जाने पर लेखक प्राचार्य शिवार्य सल्लेखना धारण पर बल देते हए सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग करता है। वे लिखते हैंकहते हैं
'जो फल बड़े-बड़े व्रती-पुरुषो को कायक्लेशादि तप, 'जो भद्र एक पर्याय मे ममाधिमरण-पूर्वक मरण करता
अहिंसादि व्रत धारण करने पर प्राप्त होता है वह फल
अन्त समय मे सावधानी पूर्वक किये गये समाधिमरण से है वह संसार मे सात-आठ पर्याय से अधिक परिभ्रमण नही
जीवों को सहज मे प्राप्त हो जाता है। अर्थात् जो आत्मकरता-उसके बाद वह अवश्य मोक्ष पा लेता है।'
विशुद्धि अनेक प्रकार के तपादि से होती हे वह अन्त समय आगे वे सल्लेना और मल्नेखना-धारक का महत्त्व मे समाधिपूर्वक शरीरत्याग से प्राप्त हो जाती। बतलाते हुए यहा तक लिखते हैं कि सल्लेखना-धारक
'बहुत काल तक किये गये उग्र तपो का, पाले हुए (क्षपक) का भक्तिपूर्वक दर्शन, वन्दन और वैयावृता आदि
ब्रतों का और निरन्तर अभ्यास किये हुए शास्त्रज्ञान का करने वाला व्यक्ति भी देवर्गात के सुखों को भोगकर अन्त
एक-मात्र फल शान्ति के साथ आत्मानुभव करते हुए मे उत्तम स्थान (निर्वाण) को प्राप्त करता है !
समाधिपूर्वक मरण करना है।' तेरहवीं शताब्दी के प्रौढ़ लेखक पण्डितप्रवर आशा. विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के विद्वान स्वामी घरजी ने भी इसी बात को बड़े ही प्राजल शब्दो मे स्पष्ट समन्तभद्र की मान्यतानुसार जीवन मे आचरित तपो का करते हुए कहा है"
फल वस्तुतः अन्न समय मे गृहीन सल्लेखना ही है। प्रतः 'स्वस्थ शरीर पथ्य आहार और विहार द्वारा पोषण १
वे उसे पूरी शक्ति के साथ धारण करने पर जोर देते है। करने योग्य है तथा रुग्ण शरीर योग्य औषधियो द्वारा आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि भी सल्लेखना के महत्त्व उपचार के योग्य है। परन्तु योग्य आहार-विहार और और आवश्यकता को बतलाते हुए लिखते है कि 'मरण औषधोपचार करते हुए भी शरीर पर उनका अनुकूल किसी को इष्ट नहीं है । जैसे अनेक प्रकार के सोना-चांदी, असर न हो, प्रत्युत रोग बढ़ता ही जाय, तो ऐसी स्थिति बहुमूल्य वस्त्रा आदि का व्यवसाय करने वाले किसी व्या