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श्री कुन्दकुन्द का विदेह-गमन ?
0 श्री रतनलाल कटारिया, केकड़ी (जून ८८ के “अनेकान्त" से आगे) श्री टोडरमल स्मारक के प्रकाशनों मे ही आचार्य विदेह मे गए थे यह प्रमाणित नही होता। कुन्दकुन्द के विदेह-गमन की चर्चा नही है किन्तु उससे मैं श्री बिरधीलाल जी सेठी और कटारिया जी दोनों पूर्व भी प्राय: सभी आधुनिक विद्वान और त्यागी इसके प्राज्ञों की गवेषणात्मक बुद्धि की अन्तस्त: प्रशन्सा करता समर्थक रहे हैं।
हूं। जैन दर्शन विज्ञानात्मक होने से समोचीन श्रद्धावान है।" जिस तरह आ० मानतंग को ४८ तालो में बन्द और भी अनेक विद्वानो की इसी प्रकार की सम्मति करने को किंवदन्ती प्रचलित है उसी प्रकार आचार्य आई है। आगम के आलोक मे विचार किया जाय तो कुन्दकुन्द के विदेह गमन की किंवदन्ती भी बुद्धि गम्य और इस विषय में "तिलोय पण्णत्ती" का एक और प्रमाण सेवा आगम समत प्रतीत नही होती। जन सामान्य अनेक तरह से प्रस्तुत करता हैसे श्रद्धा का अतिरेक करते रहते हैं किन्तु वे सिद्धान्त के चारण रिसीसु चरिमो सुपास चद्राभिधाणोय आगे नहीं टिकते।
॥१४७६।। अध्याय ४ आगमज्ञ, प्रमाण पुरस्सर लिखने वाले श्री जवाहर (चारण ऋषियों में अन्तिम सुपाश्र्व चन्द्र नामक लाल जी भीण्डर वालों ने इस विषय में अपनी सम्मति ऋषि हुए) ये वीर निर्वाण के १०० वर्ष मे हुए हैं। इसके इस प्रकार दी है
बाद कोई चारण ऋषि नही हए । यही से चारण ऋद्धि "कुन्दकुन्द विदेह में नही गये थे ऐसा जो कटारिया के ताला लग गया तब वीर निर्वाण के ५०० वर्ष बाद जी ने लिखा है वह अत्यन्त तथ्य, पूर्ण, सागम गहीत कुन्दकुन्दादि के चारण ऋद्धि बताना क्या आगम-सम्मत निर्णय, आगमानुकूल, तथ्य परक तथा सिद्धान्त रक्षक होने है? विज्ञ पाठक सोचें। से स्तुत्य एव मान्य ही है। तिलोयपण्णत्ती और महा- विचारक युक्त्यागमपूर्वक बुद्धि पुरस्सर प्ररूपणा करते पुराणादि के प्रमाण स्पष्ट है, सिद्धान्त सप्रमाण और है कोई पाग्रह और कषायवश नही । अन्यथा विचारकता निरपवाद होता है। एक प्रमाण को दूसरे प्रमाण की नहीं । इस कलिकाल मे कही चारणऋद्धि होने का शास्त्रों अपेक्षा नहीं रहती अन्यथा अनवस्था का प्रसंग आयेगा। मे सैद्धान्तिक विधान हो तो बताया जाये अन्यथा निषेध अतः कुन्दकुन्द तथैव पूज्यपाद व उमास्वामी ये सब कथन को मान्य किया जाये।
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-संभाल के बिना भटकन'जैसे सांसारिक दुःखों से छुटकारे के लिए रत्नत्रय आवश्यक है वैसे ही रत्नत्रय पूर्ति
के लिए सच्चे देव-शास्त्र-गुरु आवश्यक हैं। देव-शास्त्र-गुरु का सही रूप कायम रहने * से ही जिनधर्म और जैनी कायम रह सकेंगे। अतः अन्य सभी बखेड़ों को छोड़, पहिले
मन-वचन-काय, कृत-कारित-मोदन से क्रिया रूप में इनकी सभाल करनी चाहिए।
सच्ची प्रतिष्ठा भी यही है। अन्यथा, कही ऐसा न हो कि संभाल के बिना इनका सही * रूप हमसे तिरोहित हो जाय और जैन बेसहारा भटकता फिरे।' –सम्पादक XKKkkk*************************