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२८, बर्ष ४२, कि.१
अनेकान्त
भी सम्पत्ति संग्रह के जुगाड़ मे लगे हों-तब भी आश्चर्य परमजिन योगीश्वर के धर्मध्यानात्मक परम-आवश्यक नहीं। पर
होता है। प्रसंग मे जिन-योगीश्वर शन्द से जैन मुनि ही जब तक ऐसा चलता रहेगा और बाह्याचार पर समझना चाहिए। क्योकि जिन भगवान के धर्मध्यान न जोर न दिया जायगा, परिग्रह-लीन-प्रवृत्ति रहेगी, तब तक होकर शुक्लध्यान के अन्तिम दो पाये ही हो सकते हैं। जैन का ह्रास ही होगा। यदि श्रावक और मुनिगण इस इसके सिवाय जिन भगवान को सामायिक, स्तवनादि जैसे ओर अपनी-अपनी श्रेणी माफिक ध्यान दें और अवश्य- आवश्यको की आवश्यकता ही नही होती। करणीय को करें, तब भी बहुत कुछ हो सकता है। इस
टीकाकार ने गाथा १४३ की टीका मे लिखा हैप्रसंग मे यदि हम कन्दकन्द द्वारा प्ररूपित मात्र आवश्यक जो श्रमण अन्य के वश में रहता है उसके प्रावश्यक नहीं भर के लक्षण को ही देखें और विभिन्न आचायो कृन होता।-स्वस्वरूपादन्येषां परद्रव्याणा वशो भूत्वा....... विभिन्न टीकाओं को देखें तो भी यह स्पष्ट होते देर न द्रव्यलिङ्ग गहीत्वा स्वात्मकार्यविमुखः सन्...."जिनेन्द्रलगेगी कि कौन कहा से कहा आ गया, कितने परिग्रह में मन्दिरं वा तात्र
मन्दिरं वा तत्क्षेत्र वास्तुधनधान्यादिक वा सर्वमस्मदीयडूब गया?
मिति मनश्चकार इति ।'-जो निजात्मस्वरूप के अतिरिक्त साधारणत. आवश्यक शब्द का भाव प्रायः अवश्य
अन्य द्रव्यो के वशीभूत होकर'... "द्रव्यलिंग को ग्रहण करने योग्य, क्रिया से लिया जाता रहा है और श्रावक के करके स्वात्म कार्य से विमुख होकर'...."जिनमन्दिर लिए संसार-वधंक क्रिया से समय निकाल कर परमार्थ
अथवा उमके क्षेत्र बास्तु-धन-धान्यादि को अपना मानने को जनक क्रियाओ---(देवपूजा, गुरुउपासना, स्वाध्याय, का मन बनाता है-वह पर-वश होता है। टीका में गहीत सयम, तप, दान) के करने को जरूरी बताया जाता रहा द्रव्यलिंगी शब्द वाह्यवेश का ही सूचक है।। है। उक्त षट क्रियाएँ श्रावको के छह आवश्यक है। क्या इसी नियमसार की गाथा १४२ की मूलाचार टीका कि श्रावक दशा में परायो की जिम्मेदारी होने से श्रावक और
मे वसुनन्दी आचार्य का अभिप्राय भी ऐसा ही है अर्थात विविध सकला-विकल्पो के जाल मे फैसा होता है। यदि जो पर के वश में न हो उसके ही आवश्यक होते है--'न वह समय निकाल कर इन क्रियाओ को करले तो वह वश्यः पापादेरवश्यो यदेन्द्रियकषायेषत्कषायरागद्वेषादिआत्मा के प्रति आगे बढ़ता है। पर, आचार्य कुन्दकुन्द भिरनात्मीयकृतस्तस्यावशस्य यत्कर्मानुष्ठान तदावश्यकद्वारा किया गया आवश्यक शन्द का एक और अर्थ है जो मिति बोद्धव्य ज्ञातव्यम् .'-मूला. ७/१४. बडे गहरे मे है और मुनियो के लिए कहा गया मालूम इसी नियमसार को गाथा १४६ मे आचार्य कुन्दकुन्द होता है। उसमे श्रावकों की भाति समय निकाल कर ने इसे और भी खोला हैकरने की बात नही है। वहा तो 'स्व' के सिवाय अन्य मे 'परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं । कभी जाने की कल्पना न होने से (मुनि के अ-वश होने से) अप्पबसो सो होदि ह तस्म दु कम्म भणंति आवासं ॥१४६ प्रति समय ही आवश्यक है । कुन्दकुन्द कहते है
जो पर के भाव को छोड़ कर निर्मल स्वभाव स्व. 'ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयति बोधव्वं ।' आत्मा का लक्ष्य रखता है वह स्वय में स्व-वश होता है
-नियमसार १४२ उसके कर्म (कार्य) को प्रावश्यक कहा जाता है। 'यो हि योगी स्वात्मपरिग्रहादन्येषां पदार्थानां वशं न- उक्त स्थिति के होने पर ही 'एकाकी निस्पृहः शान्तः गतः, अतएव अवश इत्युक्तः, अयशस्य तस्य परमजिनयोगी- पाणिपात्रो दिगम्बरः' जैसी स्थिति बनती है। वास्तव मे श्वरस्य निश्चय धर्मध्यानात्मक परमावश्यककर्मावश्यं तो आहारादि क्रियाएँ भी मुनि की परवशता को इगित भवति ।
-पद्मप्रभमलधारिदेव करती हैं । पर, चूकि शरीर के रहते हुए इनका परित्याग योगी आत्म-ग्रहण के सिवाय अन्य पदार्थों के वश मे शक्त्यनुसार ही हो सकता है जिसके त्याग के लिए मुनि नही होता है अतएव उसे 'अवश' कहा गया है। और अभ्यास भी करता है और जब तक वह परिपक्व नहीं