________________
मावश्यक और दिगम्बर मुनि
हो जाता–मजबूरी मे आहार लेता है। ऐसा आहार तप लगा जाय-मुनि इनसे कभी अलग न हो। आदि में सहायक होने से मुनि की 'अवशता' की पुष्टि ही आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा हैकरता है, क्योंकि मनि की उस गद्धता नही होती। कहा 'आबासं जइ इच्छसि अप्पमहावेसु कुणदि थिरभावम् । भी है---'ले तप बढावन हेत, नहिं तन पोषते तज तेण दु सामण्णगुणं संपुण्ण होदि जीवस्स ॥ रसन को।'
आबासएण हीणो पन्भट्ठो होदि चरणदो समणो । जब हम समयसार को पढ़ते है तो उसमे भी पद-पद पुव्वत्तकमेण पुणो तम्हा आवासयं कुज्जा ।। पर आत्मा के अपरिग्रही-पर-निर्लेप और स्वतत्र आस्था आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अतरंगप्पा । करने की प्रेरणा मिलती है । आचार्य कहते है
आवासय परिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा ॥' 'अहमिक्को खलु सुद्धो, दसणणाण मइओ सदाऽरूवी ।
-नियमसार १४७-१४६. ण हि मज्झ अत्थि किं चिवि, अण्ण परमाणु मित्त पि ॥'
यदि तू आवश्यककर्म को चाहता है तो अपने आत्मउक्त गाथा की विस्तृत व्याख्याएँ मिलती है। और स्वभाव मे अपने भाव को स्थिर कर, इसी के करने से सामान्य अर्थ से भी यही फलित होता है कि-आत्मा धमणगुण की सम्पूर्णता होती है। आवश्यक कर्म से हीन अकेला स्व मे एक है, टकोत्कीर्ण शुद्ध स्वभावी है, दर्शन श्रमण चारित्र से भ्रष्ट होता है; भ्रष्ट न होवे इसलिए और ज्ञानमय परिपूर्ण है, त्रिकाल मे स्वभावतः अरूपी है उसे पूर्वोक्त क्रम से आवश्यक कर्म करना चाहिए -- 'अऔर अन्य परमाणमात्र–पर द्रव्य आत्मा का स्व-स्वरूप वश होकर रहना चाहिए । जो श्रमण (सदा) आवश्यकनहीं है। इसका आशय ऐसा भी है कि आत्मा अन्य कर्म से युक्त होता है वह श्रमरण अन्तरात्मा होता है और पदगल आदि से रहित सदाकाल दिगम्बर है। एसा शुद्ध जो आवश्यककर्म से रहित होता है वह श्रमण (द्रव्यलिंगी) आत्मा ही आकाश में स्थित होने के कारण 'दिगम्बर' नाम बहिरात्मा (मिथ्याष्टि) होता है। श्री दौलतराम जी ने पाता है। इसके सिवाय शरीर से नग्न-वस्त्र-रहित भी कहा है-'बहिरातम तत्व मुधा है।' ऐसा सब होना तो पुदगल की (निग्रंन्थता) नग्नता है -मात्र अन्त आचार्य कुन्दकन्द का अन्तरंग है इस पर ध्यान देना रग को इंगित करने को । जहाँ मैं स्वभाव से नग्न हू ऐसा चाहिए। व्यवहार भी होगा वहां भी 'मैं' से आत्मा ही ग्राह्य होगा।
आज स्थिति बड़ी विचित्र है। परिपाटी ऐसी बन शरीर से पृथक् आत्मा है, यह बात जगप्रसिद्ध है और
रही है कि-व्यक्ति अपने करने योग्य कार्यों को दूसरों से इसे अन्य भी मानते है। गीता मे वस्त्राणि जीर्णानि' आदि
कराने का अभ्यासी-सा बन गया है। जो सामाजिक से भी इस कथन की पुष्टि होती है-भले ही वहा आत्मा
व्यवस्थाएं उसे स्वयं करनी चाहिए थी वे कार्यकर्ताओं का स्वरूप कुछ भी क्यो न माना गया हो। अस्तु !
और नेताओ ने श्रमणो के ऊपर छोड़ दी। और इसमें उक्त प्रसग मे जिसको अ-बश कहा वह मुनि का ही कारण है उनकी स्वय की आचार हीनता। स्वय आदर्श रूप ठहरता है और मुनि को अ-वश होना ही चाहिए जब रूप न होने से जब समाज उनकी नही मानता तब वे ऐसा होगा तभी कुन्दकन्द-अन्दि सफल मानी जायगी। सहायता के लिए किसी श्रमण की दुहाई देकर उससे उस अन्यथा, कुन्दकुन्द की जय और आवश्यको के पालन की कार्य की सम्पन्नता चाहते है-उस पर दौड़े जाते हैं और बात कोरा दिखावा ही होगा। थोड़ी देर को यह भी मान श्रमण ऐसा करने-कराने से अपने आवश्यक कर्म से हट लिया जाय कि उक्त स्थिति अति उच्च अवस्था की है तो जाता है-सांसारिक प्रपंचो मे फंस जाता है। श्रमण का भी जो कर्म अवश होने की ओर ले जाते है उनकी ही कार्य स्व-हित प्रमुख है। जबकि आज मामला उल्टा हो पूर्ति कहा तक की जा रही है ? आवश्यको के कई भेद चुका है। इसे नेताओं और समाज को गहराई से सोचन बतलाए गए है ताकि एक के अभाव मे दूसरे म लगा चाहिए-आज यदि साधु में शिथिलता है, तो उस सबकी जाय और उसमे भी थकान होने पर तीसरे चौथे आदि में जिम्मेदारी से श्रावक बच नही सकता-उसे गुरु-पद की