________________
सोनागिरि-मम्बिर प्रभिलेख । एक पुनरावलोकन
साधु श्री लल्लूभार्या जिणा तपो सुत सावू (५) दील्हा होने की सम्भावना की थी। उन्होंने अभिलेख के 'दिन' भार्या पल्हासस जिननाथं सविनयं प्रणमन्ति"।
शब्द को रविवार का वाचक माना। वारेश के आधार
पर काल गणना करने से भी पौष सुदी पूर्णिमा संवत् संवत् ३३५ के परिप्रेक्ष्य में विद्वानों के अभिमत- १०३५ मे तथा उसी दिन रविवार भी उन्हें प्राप्त हुआ
पं० नाथूराम 'प्रेमी' ने संवत् ३३५ को संवत् १३३५ था।' बताया है। उन्होने हजार सूचक एक अंक बीजक पढ़ने अत: डा० शास्त्री को मान्यता उपयुक्त प्रतीत होती वालों को अपठनीय रहा माना है। प्रेमी जी की यह है। इस काल में जैन मन्दिर और प्रतिमाओं की अनेक मान्यता तर्कसंगत नही है। सवत् १२१२ मे मन्दिर का प्रतिष्ठाएँ हुई है। अहार, और खजुराहो जैसे प्राचीन जैन पुननिर्माण कराये जाने से निश्चित ही चन्द्रप्रभ मन्दिर धर्मस्थलों में सम्पन्न हुई प्रतिष्ठाएं इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य और प्रतिमा दोनो इस संवत् के पूर्व विद्यमान थे । इस है। संवत् ३३५ की अब तक कोई प्रतिमा प्राप्त नहीं हुई सम्बन्ध में डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री की मान्यता भी विचार- है। अतः यह काल तो निश्चित ही अशुद्ध है। णीय है।
लेखों में 'न' के स्थान में अनुस्वार, रेफ के संयोग में डा० शास्त्री ने बलात्कारगण जिसका उल्लेख सोना
वर्ण का द्वित्व, श के लिए स, ख के लिए ष का व्यवहार गिरि लेख में हुआ है, नववी शती के पूर्ववर्ती वाङ्मय में
हुआ है। अनुपलब्ध होने से तथा प्रतिमा की रचना में प्राचीनता न होने से तीन सतक पतीस के स्थान में एक सहस पैतीस -प्रभारी-जनविद्या संस्थान, श्रीमहावीर जी (राज.)
सन्दर्भ-सूची १. भट्टारक सम्प्रदायः जैन सस्कृति सरक्षक संघ, सोला- ३. भट्रारक सम्प्रदाय मे इस अपठनीय अंश मे "कियो सु पुर, ई० १६५८ प्रकाशन, लेखक ६४, पृ० ४१।।
४. अनेकान्त, वर्ष २१, किरण १, पृ० १० । २. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, भाग ३, भा० दि० . जैन साहित्य और इतिहास, संशोधित साहित्यमाला
जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, हीराबाग, बम्बई-४ ई. १९७६ बम्बई, ई० १९५६ प्रकाशन, पृ० ४३५ । प्रकाशन, पृ०६६।
६. पने कान्त वर्ष २१, किरण १, पृ०१०।
(पृ० १६ का शेषांश) ८ १९५५, प्रस्तावना पृ. ५-६६ चूणिसूत्र में कषायपाहुड
द्वारा निर्मित “लिखित तच्चारणावृत्ति" से क्या में भी रिक्तस्थानों की पूर्ति हेतु शून्य संदृष्टि उपयोग आशय है, महत्त्वपूर्ण है। "स्वलिखित उच्चारण" किया गया है । कषायपाहुड एव षट्खंडागम दोनों ही इससे अलग है। वह कोई संक्षिप्त व्याख्या है। अभी व्याकरणीय नियमों मे सूत्रबद्धरचित है । कषायपाहुड
चणि और जयधवल ही उपलब्ध है। उच्चारण वृत्ति, में कितनी ही गाथायें बीजपद स्वरूप हैं, जिनके अर्थ
शामकुंडकृत पद्धति टीका और तुम्बुलू राचार्य कृत का व्याख्यान वाचकाचार्य, व्याख्यानाचार्य या उच्चा
चडामणि व्याख्या तथा बप्पदेवकृत व्याख्या प्रज्ञप्ति
वृत्ति उपलब्ध होती है। रणाचार्य करते थे । कषायपाहुडकार को पांचवे पूर्व
६. देखिये, ओन्युगेबाएर, "एस्ट्रानामिकल क्यूनिफार्म को दसवी वस्तु के तीसरे तेज्जदोस पाहुड का पूर्ण ज्ञान
टेक्ट्स" भाग १, लदन १६५३, इस्टीट्यूट फार एडप्राप्त था । अनि संक्षिप्त होते हये भी वह सम्बद्ध
वास्ड स्टडी, प्रिंसटन के लिए प्रकाशित)। इसी के क्रम को लिए है। यह रचना असदिग्ध, बीजपद युक्त,
अनुरूप ग्रानभाषा में इस लेख के लेखक ने लब्धिगहन और सारवान् संक्षिप्त रूप मे पदो से निर्मित सारादि ग्रंथो को निरूपित कर चार भागों में प्रस्तुत है। वीरसेनाचार्य द्वारा जयधवल मे बपदेवाचार्य किया है।