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अनेकान्त
वर्ष १५
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तत्परता से किया, उससे साहूकारी करने में विशेष सफलता मिली, और बादशाह के हृदय में उनके प्रति आदर उत्पन्न हो गया। इतना ही नहीं; किन्तु बादशाह आपके काम से इतना खुश हुआ कि उसने पापको राजा की उपाधि से भी अलंकृत किया। वे बादशाह आलमशाह द्वितीय के नवरत्नों में से एक थे। उनका चित्र नवरत्नों के साथ, दिल्ली के लालकिले के पुरातत्व संग्रहालय में लगा हुआ है।
लाला हरसुखराय को शाही खजांची होने के नाते सरकारी सेवाओं के उपलक्ष्य में तीन जागीरें, सनदें और सार्टिफिकेट आदि भी प्राप्त हुए थे। जो उनके कुटुम्बियों के पास आज भी सुरक्षित है। आप भरतपुर राज्य के कौंसिलर (Councilor) भी थे। तथा राजस्थान के कोषाध्यक्ष होने से आपका सम्बन्ध अच्छे-अच्छे अंग्रेजों और विभिन्न राज्यों के दीवानों, राजाओं, नवाबों और सेठसाहकारों से था। और समाज में भी आपकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। खजांची होने के साथ आपकी सूझ-बूझ और योग्यता इतनी अच्छी थी कि पाप से एक बार परिचित होने पर आप उनके सदैव शुभचिन्तक और हितैषी बने
राजा हरसुखराय* रहते थे। बड़े पुण्यात्मा और भद्र प्रकृति मानव था थे, अतएव उसे धार्मिक कार्यों एवं परोपकार में लगाकर सौजन्य और भद्रता पूर्ण व्यवहार आपकी महत्ता के द्योतक उसका प्राय
उसका प्रायश्चित्तमात्र करते थे और देने के बाद उससे वे थे। लक्ष्मी पति होने पर भी अभिमान छू भी नहीं गया अाना मोहभाव सर्वथा हटा लेते थे । यदि वे ऐसा न करने था। वे पान पर मिटना जानते थे, और बात के धनी थे, तो उससे रागभाव बना रहता, और वह अहंकार तथा । जो कह देते थे वह कर गुजरते थे। अन्य साधी भाइया ममकार की वृद्धि का कारण बनता, जिससे प्रात्मा अनन्त के प्रति उनका व्यवहार अत्यन्त सौहार्द पूर्ण, दयालुता और दुःखों का पात्र होता । अतः उन्होंने विवेक से कार्य किया साधर्मी वात्सल्य से भरा हया था। वे धन को धामिक और वे सदा के लिए निःशल्य बन गये। बेनकी कर और कार्यों में कोड़ियों की तरह बखेरते थे, और गरीबों का कुए में डाल' की नीति का चरितार्थ करते थे। उनका सदा सन्मान करना अपना कर्तव्य मानते थे। और इस
यह त्यागभाव जैनधर्म के अनुकूल था; किन्तु खेद है कि [ का सदा ध्यान रखते थे कि मरा वजह स किसा क अब समाज दान की यथार्थता और महत्ता को भूल गया स्वाभिमान में कोई ठेस न पहुँच जाय । और कोई बुरा है। इसी कारण वह थोड़ा सा दान करके भी आपनी मानकर यह न कह बैठे कि हम तो गरीब ही भले है, पर यशोलिप्सा का संवरण नहीं कर सका. इसी कारण वह पाप तो अपनी धन्ना-सेठी प्रकट कर रहे है। अस्तु, वे धार्मिक कार्यों में धन लगा कर अपना और अपने कुटुम्बियो अपनी सम्पत्ति का अनेक धार्मिक और लौकिक कार्यों में का नाम उत्कीर्ण कराता है। खुलकर विनिमय करते थे, परन्तु बदले में सम्मान की जीवन-घटना कोई भावना नहीं रखते थे। उन्होंने कभी यश के लिये आपके जीवन-सम्बन्ध में अनेक घटनाएं प्रचलित हैं, धन खर्च नहीं किया और न उससे नाम पाने का कभी उनमें कुछ का सम्बन्ध जीवन के साथ हो सकता है और स्वप्न में विचार ही किया। वे परिग्रह को पाप समझते *लालकिला पुरातत्त्व विभाग संग्रहालय के सौजन्य से प्राप्त