________________ भ० अजितनाथ से लेकर भ. पार्श्वनाथ पर्यन्त 'ऋजप्राज्ञ' मानवों का युग रहा / ग्यारह चक्रवर्ती, नो बलदेव, नो वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेवों के शासन में दण्डनीति का इतना दमनचक्र चला कि सौम्य शमननीति को लोग प्रायः भूल गये। दाम- --प्रलोभन, दण्ड और भेद - इन तीन नीतियों का ही सर्व साधारण में अधिकाधिक प्रचार-प्रमार होता रहा / अब आया "वक्रजड़" मानवों का युग / मानव के हृदयपटल पर वक्रता और जड़ता का साम्राज्य छा गया। सामाजिक व्यवस्था के लिए दण्ड (दमन) अनिवार्य मान लिया गया। अंग-भंग और प्राणदण्ड सामान्य हो गये। दण्डसंहितायें बनी, दण्ड-यन्त्र बने / दण्डन्यायालय और दण्डविज्ञान भी विकसित हआ। आग्नेयास्त्र आदि अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों ने अतीत में और वर्तमान में अणुबम आदि अनेक अस्त्रों द्वारा नृशंस दण्ड से दमन का प्रयोग होता रहा है। पौराणिक साहित्य में एक दण्डपाणि (यमराज) का वर्णन है पर आज तो यत्र-तत्र-सर्वत्र अनेकानेक दण्डपाणि ही चलते फिरते दिखाई देते हैं / यह लौकिक द्रव्यव्यवहार है। लोकोत्तर द्रव्यव्यवहार---प्राचार्यादि की उपेक्षा करनेवाले स्वच्छन्द श्रमणों का अन्य स्वच्छन्द श्रमणों के साथ अशनादि आदान-प्रदान का पारस्परिक व्यवहार / लोकोत्तर भावव्यवहार-१ यह दो प्रकार का है ? पागम से और 2 नोमागम से / आगम से--- उपयोगयुक्त व्यवहार पद के अर्थ का ज्ञाता' / नोग्रागम से पांच प्रकार के व्यवहार हैं 1. आगम, 2. श्रुत, 3. आज्ञा, 4. धारणा, 5. जीत / 1. जहाँ पागम हो वहाँ पागम से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 2. जहाँ आगम न हो, श्रुत हो, वहाँ श्रुत से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 3. जहाँ श्रुत न हो, प्राज्ञा हो, वहाँ प्राज्ञा से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 4. जहाँ प्राज्ञा न हो, धारणा हो, वहाँ धारणा से व्यवहार की प्रस्थापना करें / 5. जहाँ धारणा न हो, जीत हो, वहाँ जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करें। इन पांचों से व्यवहार की प्रस्थापना करें:-१. पागम, 2. श्रुत, 3. प्राज्ञा, 4. धारणा और 5. जीत से। इनमें से जहाँ-जहाँ जो हो वहाँ-वहाँ उसी से व्यवहार की प्रस्थापना करें। प्र० भंते ! पागमबलिक श्रमण निर्ग्रन्थों ने (इन पांच व्यवहारों के सम्बन्ध में) क्या कहा है? उ०—(आयुष्मन श्रमणो) इन पांचों व्यवहारों में से जब-जब जिस-जिस विषय में जो व्यवहार हो तब-तब उस उस विषय में अनिश्रितोपाश्रित ...-- (मध्यस्थ) रहकर सम्यक् व्यवहार करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ आज्ञा का पाराधक होता है ! 1. प्रागमतो व्यवहारपदार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्त 'उपयोगो भाव निक्षेप' इति वचनात् / -व्यव० भा० पीठिका गाथा 6 1. टाणं-५. उ० 2 0 ४२१/तथा भग० श० 8. उ० 8. सू० 8, 9 / [19] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org