Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रज्ञापनासूत्रे
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स्वमौढ्या इति भावः, न चास्याः प्रज्ञापनाया अध्ययनरूपत्वे आदौ अनुयोगादि द्वारोपन्यासोsपि आवश्यकत्वात् कथं न क्रियते इति वाच्यम्, नन्द्युत्तराघ्ययनादिषु तयाsदर्शनेन अध्ययनादौ उपक्रमायुपन्यासस्य अवश्यकरणे नियमाभावादिति भावः अस्याञ्च प्रज्ञापनायां षटूत्रिंशत्पदानि सन्ति, पदं प्रकरणम् अधिकार:, इति समानपर्यायाः, तानि च पत्रिंशत् पदानि अधो निर्दिष्टानि अवसेयानि - 'पन्नवणा १, ठाणाई २, बहुवत्तव्व ३, ठिई ४, विसेसाय ५. वकंती ६, ऊसासो ७, सन्ना ८. जोणीय ९, चरिमाई १०, ॥४॥ भासा ११, सरीर १२, परिणाम १३, कसाए १४, इंदिए १५, पगेय १६, लेसा १७, कायठिईया १८ सम्म १९, अंतकिरियाय २० ॥५|| ओगाहण सण्ठाणा २१, किरिया २२, कम्मे २३, इयावरे ५|| (कम्मस्स) बंधए २४, (कम्मस्स) वेदए २५, वेदस्स बंधए २६, वेयवेयए आहारे २८, उवओगे ३९, पासणया ३०,
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अभिधेय पदार्थों के वर्णन मात्र को उद्देशक करके ही ऐसा कहा है। अपनी प्रौढता प्रकट करने को नहीं ।
प्रज्ञापना अध्ययन रूप है तो इसकी आदि में अनुयोगद्वार आदि का कथन करना आवश्यक था, वह क्यों नहीं किया गया ! ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि नन्दी आदि अध्ययनों में भी अनुयोगद्वारों का कथन नहीं देखा जाता। इससे सिद्ध होता है कि अध्ययन के आदि में उपक्रम आदि अनुयोग द्वारों का कथन आवश्यक नहीं है प्रज्ञापना में छत्तिस पद हैं। पद का अर्थ है प्रकरण या अर्थाधिकार । वै छत्तीस पद इस प्रकार है
(१) प्रज्ञापना, क्योंकि यह पद प्रज्ञापना विषयक पद्य को लेकर
રૂપે અભિધેય પદાર્થોના વર્ણન માત્રને ઉદ્દેશીનેજ એમ કહ્યું છે. પોતાની પ્રૌઢતા પ્રગટ કરવા માટે નહી.
प्रज्ञायना अध्ययन ३५ छे तो तेनी माहिभां (अनुयोगद्वार) विगेरेनु अथन કરવું આવશ્યક હતું, તે કેમ ન કરવામાં આવ્યું ? એમ ન કહેવુ જોઇએ કેમકે નન્દ આદિ અધ્યયનામાં પણ અનુયાગદ્વારાનું કથન જોવામા નથી આવતું. એનાથી સિદ્ધ થાય છે કે અધ્યયનની શરૂઆતમાં ઉપક્રમ વિગેરે અનુયાગ દ્વારાનુ કથન આવશ્યક નથી.
પ્રજ્ઞાપનામાં છત્રીસ પદ્મ છે. પદના અર્થ છે પ્રકરણ વા અર્થાધિકાર તે છત્રીસ પદે આ રીતે છે———(૧) પ્રજ્ઞાપના, કેમકે આ પદ પ્રજ્ઞાપના વિષયક
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧