Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका. सू, ९ स्वप्नफलरक्षणोपायनिरूपणम् तुष्टा यावत्-हर्षवशविसर्पहृदया 'करयलपरिग्गहियं' करतलपरिगृहीतं-करतलाभ्यां संपुटीकृतं 'जाव' यावत्-शिर आवर्त मस्तके अञ्जलिं हस्तसंयोजनं कृत्वा एवमवादीत् इत्थमुक्तवती-हे देवानुप्रियाः ! 'एवमेयं' एवमेतत्-एतत्स्वामफलं एवमेव यथाभवतोक्तं तत्तथैव, 'तहमेयं' तथ्यमेतत् सत्यमेतत्स्वानफलम्, 'अवितहमेयं' अवितथमेतत्-नानृतमेतत् सर्वथा सत्यमित्यर्थः 'असंदिद्धमेयं' असन्दिग्धमेतत् सन्देहरहितमेतत्-अत्र स्वप्नफले न संशयलेशोऽपीति भावः, 'इच्छियमेयं' ईप्सितमेतत्वाञ्छनीयमेतत् 'पडिच्छियमेयं' प्रतीप्सितमेतत्= ऐसा कहा तब (हतुट्टाजावहियया) हर्पित-हृदयवाली होकर (परिग्गहियं जाव अंजलिं कटु) दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उन्हें मस्तक पर रखकर-अर्थात् नमस्कार कर (एवं वयासी) ऐसा कहा । (हतुट्ठा) जाव हियया) यहां जो यह "यावत्” पद आया हैं वह इस "चित्तमाणंदिया पीइमण परमसोमणस्सिया हरिसवस विसप्पमाणहियया" पाठका संग्राहक है । इन पदोंका अर्थ इसी अध्ययन के ७ वें सूत्रकी व्याख्या में लिखा जा चुका है। इसी तरह "करतलपरिग्गहियं जाव" यहां जो यह यावत् पद आया है सिरसावत्तं मत्थए" इन दो पदोंका आमर्षक है । (एवमेयं देवाणुप्पिया हे देवानुपिय ? आपने जैसा स्वप्न का-फल कहा है वह वैसा ही है। (तहमेयं देवाणुप्पिया अवितहमेय देवाणुप्पिया) हे देवानुपिय-आपके द्वारा प्रकाशित-किया गया स्वप्नका फल बिलकुल सत्य है इस में किसी भी प्रकारकी वितथता-असत्यता नहीं है। [असदिद्धमेयं देवाणुप्पिया हे देवानुप्रिय ! आपने जो स्वप्नका फल कहा है उसमें हे देवानुप्रिय (हतुहा जाव हियया) प्रसन्न याणी थने (करयलपरिग्गहियं जाव अंजलि क) मन्ने हाथोनी मसि मनावीन. मने तेने भस्त ५२ ॥ीनमातू नभन शन-एवं क्यासी] २ प्रमाणे पु. [हतुट्टा जाव हियया माही यावतू' पहाव्युछे, ते "चित्तमाणदिया पीइमणपरणसोमणस्सिया हरिसवसनिसप्पमाण हियया।" मा पाउनोसा छे. ॥ पहोने! अर्थ ७भा सूत्रनी व्यायामा समायो छे. माशते "करतलपरिग्गहियं जाव" महर यावत ५६ माव्यु छे. ते "सिरसावत्तं मत्थए" २ मे यहोनी भाभ५४ . (एवमेयं देवाणुप्पिया) हेवानुप्रिय! तमेरे स्वप्न , ते तेभ छे. (तहमेयं देवाणुप्पिया अबित हमेयं देवाणुप्पियां) हेवानुप्रिय ! मतावे॥ २१નનું ફળ એકદમ સાચું છે, એમાં કોઈપણ જાતની વિતથતા-અસત્યતા–નથી. (असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया) देवानुप्रिय ! तभेने २१ननु ५० मायूछे तमा हेवानुप्रिय ! सशयनी ॥२ ७i2 नथा. (इच्छियमेयं देवाणुप्पिया)
શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧