Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे उपागत्य मज्जनगृहं अनुपविशति, अनुपविश्य 'अंतोअतेउरंसि' अन्त:-अन्तः पुरे, अन्तः पुराभ्यन्तरे इत्यर्थः, स्नाता कृतबलिकर्मा कुतकौतुकमंगलमायश्चित्ता 'किं ते' किं तत्, किमधिकं तद् वर्णयामीत्यर्थः, 'वरपायपत्तणेउर जाव' वर पादप्राप्तनूपुरा अत्र यावच्छन्देनेदं द्रष्टव्यम्-मणिमेखला कटयां धृता, कंठे हाराः स्थापिता, अर्जुलीषु मुद्रिका परिहिता, तथा कुण्डलोद्योतितानना, रत्नविभूषिताङ्गीः इति । 'आगासफलियसमप्पभं' आकाशस्फटिकसमप्रभम् निर्मलं श्वेतवर्णमित्यर्थः 'अंसुयं' अंशुकं-वस्त्रं 'णियत्था' देशीशब्दोऽयं, परिधृता धृतवतीत्यर्थः। तथासेचनकं गन्धहस्तिनं 'दुरूढा' दूरूढ़ा-समारूढा सती 'अमयमहियफेणजहां स्नानगृह था वहां पहुँची-(उवागच्छित्ता) पहुँचकर (मज्जनधरं) स्नान गृहमें (अणुपविसइ) प्रविष्ट हुई (अणुपविसिता) प्रविष्ट होकर (अतो अंते उरंसि) उसने वहां अंतःपुरके भीतर (दाया कयवलिकम्मा कय कोउयमंगल पायच्छित्ता) स्नान किया बलि कर्म किया, तथा कौतुक मंगल एवं प्रायश्चित्त आदि क्रियाएं की। (किं ते) अधिक और क्या कहें (वरपायपत्तणे उर जाव आगासफलियसमप्पभं अंसुयं णियत्था) चरणों में उसने सुन्दर नूपुर पहिरे। यावत् शब्द से यहां इतना और समझ लेना चाहिये-कि उसने कटि में मणियों की मेखला पहिनी, कंठ में हार पहिना अंगुलियो में मुद्रिकाएँ पहिनि कानों में कुंडल पहिने। कुंडलों के पहिरने से इसके मुख की अधिक शोभा हो रही थी। रत्नों की झलमलाहटसे इसका समस्त अंग चमकता हुआ उस समय दिखलाई दे रहा था। आकाश और स्फटिकमणिकी प्रभा के समान इसने वस्त्र पहिररखे थे। "णियत्था" यह देशीय शब्द है और इसका अर्थ पहिरना होता है। (सेणणयं गंधहत्थि दुरूढासमाणी) पांयीन (मज्जनघर) २ानमn (अणुपविसइ) प्रविष्ट थया. (अणुपविसित्ता प्रविष्ट यधने (अंतो अंते उरंसि) तेभाणे त्यां २युवासभा (हाया कय बलिकम्मा कय कोउयमंगलपायच्छित्ता) स्नान, मसिम, तुम भने प्रायश्चित वगैरे भी ४ा. (किं ते) पधारे शु. ४ी शाय. (वरपायपत्तणेउर जाव आगास फलियसमप्प अंसुयं णियत्था) तेभो परामा सरस ३२ पडा. मही યાવત’ પદ દ્વારા જાણવું જોઈએ કે તેમણે કેડે મણિમેખલા પહેરી, ગળામાં હાર પહેર્યો, આંગળીઓમાં વીંટી પહેરી અને કાનમાં કુંડળ દ્વારણ કર્યા. કુંડળની શોભાથી તેમનું મેં તેજથી વ્યાપક થઈ રહ્યું હતું. રત્નના પ્રકાશદ્વારા તેમનાં બધાં અંગ ચમકી રહ્યાં હતાં. આકાશ અને સ્ફટિક મણિની કાંતિ જેવા તેમણે વા ધારણ ध्या इतi. “णियत्था" ॥ ४शी १०४ छ भने तेनो २५ पड” थाय छे. (सेणणयं गंधहत्थि दुरूढा समाणी) न्यारे तेभने। श्रृ॥२ पूरी थयो त्यारे
શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧