Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 671
________________ अनगारधर्मामृत वर्षिणीटीका अ. २. धन्यस्य विजयेन सह हडिबन्धनादिकम् ६५९ रूपं संसार एव कानतारं महाऽरण्यं, तत्-भवाटवीमित्यर्थः, 'अणुपरियटिस्सइ' अनुपर्यटिष्यति=निरन्तरं परिभ्रमिष्यति । 'एवामेव' एवमेव=अनेनैव प्रकारेण हे जम्बूः ! याखलु अस्माकं निग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा आचार्यो पाध्ययानामन्ति के 'मुंडो' मुणुः, द्रव्यतो भावतश्च मुंडितो भूत्वा अगारात् अनगारितां व्रजितः पाप्तःसन् विपुलमणिमौक्तिकधनकनकरत्नसारेण 'लुब्भई' लुभ्यति-मणिमौक्तिकधनादि लुब्धो भवति ‘से वि य' सोऽपि च साधु वा साध्वी वा 'एवंचेव' एवमेव-विजयतस्करवदेव चातुरन्तसंसारकान्तारे भ्रमिष्यतीति भावः ॥सू० १२॥ मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा थेरा भगवंतो जाइ संपन्ना जाव पुव्वाणुपुट्विं चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिमिहत्ता संजमेणं तवसा अमार्ग बहुत लंबा चौडा है अथवा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप काल जिसका बहुत दीर्घ है--परिभ्रमण करेगा। (एवामेव जंबू । जे णं अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए समाणे विपुलमणिमुत्त यधणकणग रयणसारेण लुभइ से वि य एवं चेव) इसी प्रकार से हेजबू। जो हमारे निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी साधु साध्वी जन आचार्य, उपाध्याय के पास द्रव्य भाव रूपसे मुंडित होकर अगार से अनगारी अवस्था को प्राप्त करते हुए विपुल मणिमौक्तिक, धन, कनक, रत्न आदि में लुभा जाते है वे भी इसी तरह चतुर्गतिरूप इस संसार अटवो में भ्रमण करते रहेंगे । ॥सू० १२॥ બહુ જ લાંબ અને વિસ્તાર પામેલે છે અથવા ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી રૂપ કાળ भनी म ध छ-परिभ्रम ४२२. (एवामेव जबू! जे णं अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय उवज्झायाण अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए समाणे विपुलमणिमुत्तयधणकणगरयणसारण लुब्भइ से वि य एवं चेव) 0 रीते ४ भू ! २ सभा। निथ निथी साधु સાધ્વીજન આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયની પાસે દ્રવ્ય ભાવ રૂપથી મુંડિત થઈને અગાઉથી અવસ્થાને મેળવતાં ખૂબ જ મણિ. મૌકિતક, ધન, કનક રત્ન વગેરેમાં લુપ થઈ જાય છે. તેઓ પણ આ વિજય તસ્કર જેવા જ છે. અને તેઓ પણ આ પ્રમાણે જ ચતુર્ગતિરૂપ આ સંસાર રૂપી અટવીમાં પરિભ્રમણ કરતા રહેશે. સૂ. ૧૨ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧

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