Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 749
________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ ४ गुप्ते द्रियत्वे कच्छपश्रृगालदुष्टान्तः ७३७ " 'आहारिता' आहारयित्वा तं कूर्मकं सर्वतः समंताद् उद्वर्तयतः यावत् नो चैव खलु शक्तः यावत् कर्तु तदा द्वितीयमपि अपक्रामतः, तं कूर्मकमित्याद्यक्रामत इत्यन्तपदसमुदायस्यायं भावार्थः चरणैकमक्षणानन्तरं पुनस्तौ शृगालौ, अवशिष्टत्रितयचरणकं कूर्मकं सर्वतः समन्तादुद्वर्तन परिवर्तन मनागपसारणादिभिर्व्यापारैः क्षोभयितुं तथा-नस्वदन्ताघातैश्छिन्नं खण्डितं च कर्तुं प्रयतमानौ न शक्नुतस्तस्य कूर्मकस्य शरीरे कामपि बाधां कर्तुं तदा श्रान्तौ निर्वेदं प्राप्तौ तौ शृगालौ द्वितीयवारमपि परावृत्त्य दूरमपसरत इति । ' एवं चत्तारिविपाया जाव २ गीवं गीणेइ' एवं चतुरोऽपि पादान् यावत् शनैः शनै ग्रीवां नयति । एवम= उक्तक्रमेण स कूर्मकस्तौ गालौ दूर उव्वति) खाकरके फिर उन्होंने उस कच्छप को सब प्रकार से और सब तरफ से उल्टा पल्टा | (जाव नो चेत्र णं संचाएंति करेत्तए) परन्तु वे उसके शरीर में किसी भी प्रकार की पीडा आदि को करने में समर्थ नहीं हो सके । (ताहे दोच्चपि अवक्कमंति) तब दुवारा भी उन्होंने उस पर आक्रमण किया । इसका भाव यह है कि जब उन्होंने उसका एक चरण भक्षण कर लिया, तब उसके बाद अवशिष्ट तीन चरण वाले कच्छप को सर्व प्रकार से और सब तरफ से उद्वर्तन, परिवर्तन, मनागपसारण आदि व्यापारों द्वारा क्षुभित करने का तथा नखदन्तादि आघातों द्वारा छिन्न और खंडित करने का प्रयत्न किया-तो भी वे उस कच्छप के शरीर में किसी भी प्रकार की बाधा करने के लिये समर्थ नहीं हो सके । तच श्रान्त और निर्वेद को प्राप्त होकर बे दोनों के दोनों श्रृंगाल दुबारा भी लौटकर बहुत दूर चले गये । ( एवं चत्तारि वि पाया जाव सणियं २ गीवं गीणे३) उस कच्छपने इसी तरह समता उन्नति) भाषा पछी श्रृगालोमे ते अयमाने आम तेम उपर नीचे परिवर्तित श्वासाया. (जाव नो चेत्र णं संचाएंति करेत्तए) पशु ते तेना शरीरने सहेन थाणु थीडा पहींयाडी राम्या नहि. ( ताहे दोचंपि अवक्कमंति) ત્યારે ખીજી વાર પણ તેઓએ કાચમા ઉપર હુમલેા કર્યાં. કહેવાના હેતુ એ છે કે જ્યારે તેઓએ કાચબાના એક પગ ખાધા ત્યારે ત્રણ પગવાળા કાચબાને સર્વાં પ્રકારે ચામેરથી ઉદ્ભન, પરિવર્તન મનાગપસારણ વગેરે ક્રિયાઓ વડે ક્ષુભિત કરવાના તેમજ નખ દાંત વગેરેના પ્રહારા વડે છિન્ન અને ખંડિત કરવાને પ્રયત્ન કર્યો છતાંએ તેએ કાચખાના શરીરને કોઇપણ જાતની પીડા પહોંચાડવામાં સમ થઇ શકયા નહિ. ત્યાર પછી શ્રાંત કલાંત થયેલા શૃગાલેા ખીજી વાર પણુ પાછા इरीने हूर नता रह्या. (एवं चत्तारि वि पाया जाव सणियं २ गीव णीणेइ) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૧

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