Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका. अरसू. २ भद्राभार्यायाविर्णनम्
५७५ पौर्णमासी तस्याःरजनीकरश्चन्द्रस्तद्वत् प्रतिपर्ण-सौम्यं=आलादजनकं वदनंमुखं यस्याः सा तथा 'सिंगारागारचारुवेसा,' शृङ्गागगारचारुवेषा, शृङ्गाराख्थ प्रथमरसस्य अगारमिव-गृहमिव चारुवेषो यस्याः सा, यद्वा शृङ्गारो भूषणाटोपस्तत्प्रधान आकारो यस्याः सा तथा मनोहरनेपथ्या, अत्र पद द्वयस्य कर्मधारयः। 'जाव' यावत् 'पडिरूवा' प्रतिरूपा 'वंझा' बन्ध्याअपत्यफलापेक्षया निष्फला, एकवार संतानसंजाता नंतरमपत्यमरणेनांपि फलतो वन्ध्या भवति, अतएव 'अविया उरी' देशी शब्दः, अविजनयित्री सर्वथा संतानाऽजननशीला संतानजननशक्तिरहिता, इत्यतः 'जाणुकोप्परमाया' जानु कूपरमाता, 'जाणु' जानुनी चरणयो मध्यभागौ 'कोप्पर' परौ करयोर्मध्यभागौ तेषामेव 'माया' माता-जननी चाप्यासीत् ।।मू. २॥
मलम्-तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स पंथए नामं दासचेडे होत्था, सव्वंगसुंदरंगे मंसोवचिए बालकीलावण कुसले यावि होत्था, तएणं से धण्णे सत्यवाहे रायगिहे नयरे बहूणं नयरनियगसेट्रि सत्थवाहाणं अट्ठारसण्ह य सेणिप्पसेणोणं बहुसु कज्जेसु य कुडुबेसु य मंतेसु य जाव चक्खूभूए यावि होत्था, नियगस्स विय णं कुटुंबस्स बहुसु य कजेसु जाव चक्खुभूए यावि होत्था ॥सू. ३॥ जाणुकोप्परमाया यावि होत्या) उसके कपोल मंडल पर जो चन्दनादिक की रेखा लगी रहती थी वह दोनों कानों के कुंडलों से घर्षित होती रहता थी। कात्तिकी पूर्णमासी के पूर्ण चन्द्र मंडल के समान इसका सौम्य-आलादजनक-मुख था। इसका सुन्दर वेष श्रृंगाररस के घर जैसा था। फिर भी यह इतनी त्रिभुवन सुन्दरी होने पर भी बंध्या थी । ऐसी बंध्या थी-कि इसके प्रारंभ से ही संतान नही हुई थी-संतान जननशक्ति से यह बिलकुल रहित थी। यह तो केवल जानु और कूपर-करके मध्यभाग टेहनी की माता थी। ॥सूत्र २॥ अवियाउरी जाणुकोप्परमाया यावि होत्था) तमना पास ५२ मनापामा આવેલી ચન્દન રેખાએ, બંને કાનમાં પહેરેલા કુંડળેથી ઘસાતી હતી. કાર્તિક પૂનમના ચન્દ્રમંડળની જેમ તેમનું મેં સૌમ્ય અને આલ્હાદજનક હતું. ત્રિભુવન સુંદરી હોવા છતાં તે વંધ્યા હતી. શરૂઆતથી જ તેને એક સંતાન થયું ન હતું. સંતાન જનન શકિત તેમનામાં સદંતર સમૂળ રૂપે હતી નહિ એને તે સંતાન રૂપે ફક્ત ઢીંચણ અને કેણી જ હતાં. એ સૂત્ર ૨
શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૧