Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ.१सू.२९ मातापितृभ्यां मेघकुमारस्य संवादः ३६९ यत्र चर्वणमित्र चारित्रं दुष्करमित्यर्थः, मिक्थकदन्तैः 'मेण - 'भोम' इतिप्रसिद्धद्रव्यनिर्मितै दन्तै लोहमय चणक चर्वगमिव चारित्रपालनं दुष्करमिति भावः 'वालुया कवले इत्र निरस्साए' वालुका कवल इव निःसारकं =वालुका ग्रास इव निरास्वादः - विषयास्वादवर्जितमित्यर्थः । पुनः कीदृशं प्रवचनम् गंगा इव महानदी पडिसोयगमणाए' गङ्गेव महानदी प्रतिस्रोतो गमनेन - प्रतिस्रोतसागमनेन = प्रवाहाभिमुखगमनेन गङ्गेव दुस्तरं पवचनमनुपालयितुमित्यर्थः . अनुकूलपतिकूल परीषहोपसर्गसम्भृतं चारित्रपालनमतीव दुष्करमितिभावः, 'महासमुह इव भुयाहिं दुत्तरे' महासमुद्र इत्र भुजाभ्यां दुस्तरं भुजाभ्यां इसमें भी क्रिया आचार आदिरूप धारे बडी तीक्ष्ण है । - - ( लोहमयाइवजवा चावयन्त्रा) जिस तरह मोम (मेण) के जिस के दांत बने हों, वह लोहे के चनें नहीं चबासकता है-उसी तरह सकल संयम रूप चारित्र का - पालन भी बड़ा कठिन कार्य है (वालुयाकवलेइव निरस्साए ) बालुका का ग्राम जिस प्रकार निस्सार-स्वाद रहिन होता है-उसी तरह विषय सुख से वर्जित होने के कारण निर्ग्रन्थ प्रवचन भी निस्सार है (गंगाइव महनदी पडिसोय गमणाए ) जिसतरह प्रवाहकी प्रतिकूल दिशा तरफ चलने वालाव्यक्ति गंगा नदी को पार नहीं कर सकता उसी तरह विषय कषायों से प्रतिकूल होकर इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन का पालन करना भी बडा ही दुष्कर कार्य है क्योंकि इसके पालन करने में जीवोंकों बडी २ अनुकूल प्रतिकूल परिषदें और उपसर्ग - समय २ पर टक्करें दिया करते हैं। अतः चारित्रक परिपालना ऐसे समय बडे दुष्कर हो जाती है - महासमुद्दोइन भुवाहि दुत्तरे) भुजाओं जैसे समुद्र का पार करना अशक्य होता हैप्रिया आयार३५ धार हुन तीक्ष्णु होय छे. ( लोहमया इव जत्रा चावेयव्त्रा ) જેમકે જેના દાંત મીણના બનેલા હોય તે તે લેાખંડના ચણા ચાવી શકતા નથી, ते ४ रीते सज्ज संयम३य यारित्र्यनुं चासन महु ? उहए। अभ छे. ( बालुया कवले व निरस्साए ) भेभ रेतीने अणियो मेस्वाह होय छे, तेम ४ विषय सुम रहित होवाथी या निग्रंथ प्रवयन पशु निस्सार छे. ( गंगाइव महानदी पडि सोयगमणाए ) प्रेम अवाहनी प्रतिट्ठूस दिशामा भनार भाणुस गंगा नहीने પાર થઈ શકતા નથી, તેજ રીતે વિષય કષાયાથી પ્રતિકૂળ થઈને આ નિગ્રંથ પ્રવચનનું પાલન કરવું પણુ અતીવ કઠણ કામ છે, કેમકે એનુ પાલન કરવામાં જીવાને ઘણા ભયંકર અનુકૂળ પ્રતિકૂળ પરિષદ્ધો અને ઉપસર્ગો વખતેાવખત પ્રહાર કરતા જ રહે છે. એટલે ચારિત્ર્યનું પાલન આવા સમયે બહુ જ કપરૂં થઇ પડે છે. (મદાसमुह व भुयाहिं दुत्तरे ) भाणुसने प्रेम पोताना बहुमोथी तरीने समुद्रने
શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૧