Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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___ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे पुरुषहरुद्वहनयोग्यां 'सियं' शिविकां पालखी' इति भाषा प्रसिद्धाम्, तए 'उवट्ठवेह' उपस्थापयत-समानयतेत्यर्थः। ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः हृष्टतुष्टा यावत् उपस्थापयन्ति । ततः खलु स मेघकुमारः शिविका दरोहति आरोहति, दुरुह्य-आरुह्य सिंहासनवरगतः वज्ररत्नखचित वेदिकोपरिस्थापित तवरसिंहासनसमारूहः इत्यर्थः, पूर्वाभिमुखः सन् संनिपण्णः उपविष्टः। ततः खलु तस्य मेघकुमारस्य माता धारिणी देवी स्नाता कृतबलिकर्मा यावत् अल्पमहर्घाभरणालङ्कृतशरीरा शिविकां दुरोहति आरोहति दुरुह्य मेघकुमारस्य दक्षिणपार्श्व भद्रासने निषीदति-उपविशति । ततः खलु तस्य मेघकुमारस्य हजार पुरुष जिसे उद्वहन कर सकें ऐसी हो (तएणं ते कोडुबियपुरिसा हट्ट तुट्ठ जाव उवहवेंति ) इस प्रकार राजा का आदेश प्राप्त करते कौटुम्बिक पुरुष बहुत ही अधिक हर्ष से संतुष्ट हुए और जिस प्रकार को पालखी उपस्थित करने की बात राजाने कही थी--उसी प्रकार की पालखी लाकर उन्होंने उपस्थित करदी। (तएणं से मेहे कुमारे सीयं दुरूहइ ) पालखी के आतेही मेहकुमार उस पर सवार हो गये। (दु रुहिता सीहासणबरगए पुरस्थाभिमुहे सत्रिसन्ने) वहां पर जे। वज्र रत्न खचित वेदिका के उपर उत्तम सिंहासन रखा था उस पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके वे मेघकुमार राजा बैठ गये। (तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया हाया कयवलिकम्मा जाव अप्पमहग्धाभरणालंकि पसरीय सीयं दुरूहई) इस के बाद मेघकुमार की माता धारिणी देवी स्नान करके काक आदि को अन्नादिका भाग रूप बलिकर्म आदि करके वजन की अपेक्षा अल्प, मूल्य की अपेक्षा बहुत कीमती आभरणों
१२ माणुस यी ५ वी डोदा ये (तएणं तं कोडंबिय पुरिसों हह तुट्टा जाव उपहति) मारीते शनी माज्ञा भेजवीन औदुमि पुरुषो मतीव પ્રસન્ન અને સંતુષ્ટ થયા અને રાજાએ જે જાતની પાલખી તૈયાર કરીને લાવવા भाटे हुम या डतो तेवी भी arel ord माव्या. (तएणं से मेहे कूमारे सीयं दुरुहइ) सभी मावतi or भेधभार तेमा सवार थया (दहित्ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने ) तेभा । भने २त्ने3eी વેદિકાઓ પર મૂકાએલા ઉત્તમ સિંહાસન ઉપર પૂર્વાભિમુખ થઈને મેઘકુમાર રાજા मेसी गया. (तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया हाया कयवल्लिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा सीयं दुरूहई ) त्या२४ भेषમારની માતા ધારિણદેવી સ્નાન કરીને, કાગડા વગેરેને અન્ન વગેરેની બલિ આપીને
શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧