Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 13
________________ परिणमन को व्यारा काल द्रव्य को स्वीकार किये विना नही हो सकती । काल द्रव्य किमी का बलपूर्वक परिणमन नहीं कराता, वह तो उन परिणमनणील पदार्यों के परिणमन मे सहायकमात्र होता है। जिस प्रकार शीत ऋतु मे स्वय अध्ययन-मिया करते हए पुरुप को अग्नि सहकारी है और जिस प्रकार स्वय घूमने की क्रिया करते हुए कुम्हार के चाक को नीचे की कीली सहकारी है उसी प्रकार स्वय परिणमन करते हुए पदार्थों की परिणमन-क्रिया मे काल सहकारी है । काल के दो भेद है (137)-1 व्यवहार काल और 2 परमार्थ (द्रव्य) कान । संकिंड, मिनिट, घटा, दिन, महिने, वर्प आदि व्यवहार काल है। यह क्षणमगुर और पगश्रित है। इसकी माप पुद्गल द्रव्य के परिणमन के बिना नही हो सकती (136)। परमार्थ काल नित्य और स्वाधित है। परिवर्तन, एक स्थान मे दूसरे स्थान में गति, धीरे और शीघ्र, युवा और वृद्ध, नवीनता और प्राचीनता प्रादि व्यवहार विना व्यवहार काल के सभव नहीं है। यहा यह बात ध्यान देने योग्य है कि द्रव्यो के स्वरूप को समझाने के साथमाथ प्राचार्य कुन्दकुन्द का उद्देश्य मनुष्य को प्राध्यात्मिक विकास की चरम सीमा पर अग्रमर होने के लिए प्रेरित करना है जिसमे वह तनावमुक्त जीवन जी सके । उनकी प्रेरणा है कि व्यक्ति म्व-चेतना की स्वतन्त्रता को जीये। यह स्वतन्त्रता का जीवन ही ममता का जीवन है (104)। ऐसे व्यक्ति का सुख प्रात्मोत्पन्न, विपयातीत, अनुपम, अनन्त और अविच्छिन्न होता है (102)। ऐसा व्यक्ति ही परम पान्तिरूपी सुग्ष को प्राप्त कर मकता है (103)। प्राचार्य कुन्दकुन्द का मानना है कि स्वतन्त्रता प्रात्मा का स्वभाव है। परतन्यता कारणो द्वारा थोपी हुई है। किन्तु व्यक्ति परतन्त्रता के कारणो को इतनी दृढता मे पकडे हुए है कि परतन्त्रता स्वाभाविक प्रतीत होती है, किन्तु मानसिक तनाव की उत्पत्ति इम म्वाभाविकता के लिए चुनौती है । प्रात्मा को म्वतन्य समझने की दृष्टि निश्चयनय है और उसको परतन्त्र मानने की दृष्टि व्यवहारनय है । जव आत्मा की पर से स्वतन्त्रता स्वाभाविक है तो प्रात्मा की परतन्त्रता अस्वाभाविक होगी ही । इसीलिये कहा गया है कि निश्चयनय (शुद्ध नय) वास्तविक है और व्यवहारनय अवास्तविक है (45) । ठीक ही है जो दृष्टि स्वतन्त्रता का बोध कराए वह रष्टि वास्तविक ही होगी और जो दृष्टि परतन्यता के आधार से निर्मित हो वह अवास्तविक ही रहेगी । प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि जो दृष्टि आत्मा को स्थायी, अनुपम, कर्मों के बन्ध से रहित, रागादि मे न छुना हुआ तथा अन्य से अमिश्रित देखती है वह निश्चयनयात्मक

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