Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 50
________________ 113 उवभोज्जमिदिएहि य इंदिय काया मणो य कम्माणि। . जं हवदि मुत्तमण्णं त सव्वं पुग्गलं जाणे ॥ 114. देहो य मणो वारणी पोग्गलदवप्पगत्ति णिहिट्ठा । पोग्गलदव्वंपि पुणो पिडो परमाणुदत्वाणं ॥ 115 अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो य सयमसद्दो जो। गिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुहवदि । 116. एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं व लुक्खत्तं । परिणामादो भणिदं जाव अणंतत्तमणुहदि ॥ 117 णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा। समदो दुराधिगा जदि बज्झति हि प्रादिपरिहीणा ॥ 118. णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणरिणीण बंधमणुहवदि । लुक्खेण वा तिगुरिणदो अणु बज्झदि पंचगुणजुत्तो ।। 119. दुपदेसादि खंधा सुहुमा वा बादरा ससंठाणा । पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहि जायते ॥ 120. अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं सुहुमथूलं च । सुहुमं अइसुहमं इदि धरादियं होदि छन्भेयं ॥ 34 प्राचार्य कुन्दकुन्द

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