Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan
View full book text
________________
145 भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवनोगो।
सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा ।।
146. मणुसत्तणेण णटो देही देवो हवेदि इदरो वा।
उभयत्त जीवभावो ण णस्सदि रण जायदे अण्णो ।
147. सो चेव जादि मरणं जादि रण गट्ठो रण चेव उप्पण्णो ।
उप्पण्णो य विणो देवो मणुसो त्ति पज्जायो ।
148. अत्थो खलु दव्वमनो दवाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि ।
तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥
149 जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिगति णिहिट्ठा ।
प्रादसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ॥
42
आचार्य पु

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123