Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 91
________________ 78 रिणच्छयणयस्स = निश्चयनय के । एवं = इस प्रकार । मादा = आत्मा । अप्पाणमेव = प्रात्मा को ही। करेदि = करता है । वेदयदि = भोगता है । पुणो = तथा । त = उसको । चेव = ही । जाण = जानो । अत्ता = आत्मा। दु= ही । अत्ताण = प्रात्मा को । 79 ववहारस्स (ववहार) 6/1 दु (अ) = किन्तु प्रादा (पाद) 1/1 पोग्गल कम्म [(पोग्गल)-(कम्म) 2/1] करेदि (कर) व 3/1 सक यविह (यविह) 2/1 वि त (त) 21 सवि चेव (अ) = ही य (अ) = तथा वेदयदे (वेदयदे) व 3/1 मक अणेयविह (अणेयविह) 2/1 वि। 79 ववहारस्स = व्यवहारनय के । दु= किन्तु । मादा = आत्मा। पोग्गलकम्म = पुदगल कर्म को । फरेदि = करता है । रणेयविह = अनेक प्रकार के । त= उस (को) । चेव = ही । य= तथा । वेदयदे = भोगता है । पोग्गलकम्म % पुद्गलकर्म को । अणेयविह = अनेक प्रकार के । 80 अप्पा (अप्प) 1/1 उवप्रोगप्पा [(उवप्रोग)+ (अप्पा)] [(उवयोग) (अप्प) 1/1] उवनोगो (उवयोग) 1/1 णाणदसण [(णाण)-(दसण) 1/1] भणिदो (भण) भूक 1/1 सो (त) 1/1 सवि हि (अ) = पादपूरक सुहो (सुह) 1/1 वि असुहो (असुह) 1/1 वि वा (अ) = अथवा अप्पणो (अप्प) 6/1 हवदि (हव) व 3/1 अक । 80 अप्पा = प्रात्मा। उवप्रोगप्पा = उपयोग स्वभाववाला । उवनोगो = उपयोग । णाणदसण = ज्ञान-दर्शन । भणिदो = कहा गया। सो= वह । सुहो= शुभ । असुहो = अशुभ । वा= अथवा । उवमोगो = उपयोग । अप्पणो आत्मा का । हवदि = होता है । 81 जवि (प्र) = यदि सो (त) 1/1 सवि सुहो (सुह) 1/1 व (म) = अथवा प्रसुहो (अमुह) 1/1 ए (अ) = नही हवदि (हव) व 3/1 अक प्रादा (पाद) 1/1 सय = स्वय सहावेण [(स) वि-(हाव) 3/1] ससारोवि [(ससारो)+ (अवि)] ससारो (ससार)1/1 अपि = ही ण = नही विज्जदि (विज्ज) व 3/1 अक सन्वेसि (सव्व) 6/2 सवि जीवकायाण (जीवकाय) 6/2। 1 हेतुमूचक वाक्यो मे विधिलिंग के स्थान पर प्राय वर्तमान काल का प्रयोग होता है। 75 द्रव्य-विचार

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