Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 95
________________ जान । दुप्पउत्त = अनुचित रूप से प्रयोग किया गया। मोहो = मोह । पावप्पदा = पाप के स्थान । होति = होते है । 90 भाव (भाव) 1/1 तिविहपयार [ (तिविह) वि - (पयार) 1/1] सुहासह [ (सुह) + (असुह) ] [(सुह) वि- (असुह) वि ] सुद्धमेव [(सुद) + (एव)] सुद्ध (सुद्ध)1/1 वि एव (म) = ही णायव (णा) विधि 1/1 प्रसुह (असुह) 1/1 वि च (अ) = और अट्टरद्द [(अट्ट)(रुट) 1/1] सुहधम्म [ (सुह)वि- (धम्म) 1/1 ] जिणवारदेहि (जिणवरिंद) 3/21 90 भाव = भाव । तिविहपयार = तीन प्रकार के भेद | सुहासह = शुभ, अशुभ । सुटमेव = शुद्ध ही। णायव्व = समझा जाना चाहिए । असुह = अशुभ । च% और । अट्टरद्द = आर्त और रौद्र । सुहधम्म = शुभ, धर्म । जिणवारदेहि = अरहतो द्वारा। 91 जो (ज) 1/1 सवि जाणादि (जाण) व 3/1 सक जिणिदे (जिणिद) 2/2 पेच्छदि (पेच्छ) व 3/1 सक सिद्धे (सिद्ध) 2/2 तधेव (प्र) उसी प्रकार अरणगारे (अणगार) 2/2 जीवे (जीव) 7/1 य (अ) = तथा साणकपो [ (स)+ (अणुकपो) ] [(स)- (अणुकप) 1/1 ] उवप्रोगो (उवयोग) 1/1 सो (त) 1/1 सवि सहो (सुह) 1/1 तस्स (त) 6/1 स। 1 (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-158) 91 जो जो । जाणादि = समझता है । जिणिदे = अरहतो को । पेच्छदि%D समझता है । तघेव = उसी प्रकार । अणगारे - साघुरो को। जीवे = जीव पर । य% तथा । साणुकपो= दयासहित । उवभोगो = उपयोग । सो वह । सुहो- शुभ । तस्स = उसका। 92 विसयकसानोगाढो (विसय) + (कसान)+ (ोगाढो)] [(विसय) - (कसान) - (प्रोगाढ) भूकृ 1/1 अनि ] दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो [(दुस्सुदि)- (दुच्चित्त) - (दुट्ठ) वि - (गोट्ठि) - (जुद) भूकृ 1/1 अनि] उग्गो (उग्ग)1/1 वि उम्मग्गपरो [(उम्मग्ग) - (पर)1/1 वि] उपोगो (उवोग) 1/1 जस्स (ज) 6/1 स सो (त) 1/1 सवि असुहो (असुह) 1/1 वि । 1 समास के अन्त मे अर्थ होता है 'लीन' । द्रव्य-विचार

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