Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 99
________________ 100 जो जो । सम्वसगमुक्को - सम्पूर्ण आसक्ति से रहित । (अ)णण्णमणो = तल्लीन । मप्पण= प्रात्मा को । सहावेण = स्वभाव से । जाणदि= जानता (है) । पस्सदि = देखता है । णियद = निश्चयात्मक रूप से । सो= वह । सगचरिम = आत्मा मे, प्राचरण (को)। चरवि = करता है । जीवो %D व्यक्ति । 101 एव (म) = इस प्रकार विदिदत्यो [(विदिद) + (अत्थो)] [(विदिद) भूकृ पनि - (पत्य) 1/1] जो (ज) 1/1 सवि दम्वेसु (दव्व) 7/2 ए () = नही रागमेदि [(राग)+ (एदि)] राग (राग) 2/1 एदि (ए) व 3/1 सफ दोस (दोस) 2/1 वा (अ) =और उवोगविसुद्धो [(उवयोग)- (विसुद्ध) 111 वि] सो (त) I/I सवि खवेदि (खव) व 3/1 सक वेहुम्भव [(देह)+ (उन्भव)] [(देह) - (उन्मव) 2/1 वि दक्खं (दुक्ख) 2/1। 101 एव = इस प्रकार । विदिदत्यो विदिध+प्रत्थ = जानी गई, वस्तुस्थिति । जो जो । दम्वेसु = वस्तुमो के प्रति । = नही । रागमेदि = राग+ एदि = राग को, करता है । दोस = द्वेष को । पा= और उवमोगविसुद्धो = उपयोग से शुद्ध । सो वह । खवेदि = समाप्त कर देता है । वेहुन्भव = देह से उत्पन्न । दुक्ख - दु ख को । 102 अइसयमादसमुत्यं [(अइसय)+ (पाद) + (समुत्थ)] अइसय (अइसय) 1/1 वि [(पाद)- (समुत्य) 1/1 वि] विसयातीद [(विसय)+ (मतीद)] [(विसय) - (प्रतीद) 1/1 वि] प्रपोवममणत [(प्रणोवम)+ (प्रणत)] अणोवम (प्रणोवम) 1/1 वि प्रणत (अणत) 1/1 वि प्रवृच्छिण्ण (अव्वुच्छिण्ण) 1/1 वि च (प्र) = तथा सह (सुह) 1/1 सुवप्रोगप्पसिद्धाण [(सुद्ध)+ (उवमोग)+ (प्पसिद्धाण)] [(मुद्ध)भूकृ पनि-(उवमोग) -(प्पसिद्ध) भूक 6/2 अनि । 102 प्रइसयमादसमुत्थ = अइसय+भाद+समुत्थ = श्रेष्ठ, प्रात्मोत्पन्न, (मात्मा से, उत्पन्न)। विसयातीव = विषयातीत । अरपोवममणत = अणोवम+ प्रणत = अनुपम, अनन्त । अवच्छिण्णं = अविच्छिन्न । च = तथा । सह = सुख । सुवप्रोगप्पसिद्धाण = सुद्ध+उवभोग+प्पसिद्धाण = शुद्ध, उपयोग से, विभूषित का। 83 द्रव्य-विचार

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