Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 68
________________ 6/2 सक्कदि (मक्क) व 3/1 अक त (त) 1/1 मवि देदुमवकास [(देदु) + (अवकाम)] देदु (दा) हेक अवकाम (अवकास) 2/1। 17 भागासमणुरिणविट्ठ = आकाण मे, अणु, स्थित । आगासपदेससाणया = आकाश का (एक) प्रदेश, नाम द्वारा । भणिदं = कहा गया (है)। सव्वेसि अणूण = मब अणुनो को । सक्कदि = ममर्थ होता है । त= वह । देदुमवकास = स्थान देने के लिए। 18 जस्स (ज) 6/1 सण = नही सति (अम) व 3/1 अक पदेसा (पदेम) 1/2 पदेसमेत्त [(पदेम)-(मेत्त) 1/1] व(अ) = भी तच्चदो (प्र) = वस्तुत णादु (णा) हेकृ सुण्ण (मुण्ण) 1/1 जाण (जाण) विधि 2/1 सक तमत्य [(त) + (अत्य)] त (त) 1/1 सवि प्रत्य (प्रत्य) 1/1 अत्यतरभूदमत्योदो [(अत्यतर)+ (भूद)+ (अत्यीदो)] [(अत्यतर) (भूद) भूक 1/1 अनि] अत्यीदो (अत्यि) 5/1 | 18 जस्स = जिसके । ण = नही । सति = है । पदेसा = प्रदेश । पदेसमेत्त = प्रदेश मात्र । व= भी । तच्चदो = वस्तुत । पादु = जानने के लिए । सुण्ण = शून्य । जाण = समझो। तमत्य = वह द्रव्य । प्रत्यतरभूदमत्योदो = [ (अत्थतर) + (भूद) + (अत्थीदो)] = विपरीत, हुना, अस्तित्व से । 19 अण्णोण्ण (अण्णोण्ण) 2/1 वि पविसता (पविस) वकृ 1/2 दिता (दा) वकृ 1/2 प्रोगासमण्णमण्णस्स [(ोगास)+ (अण्णमण्णस्स)] - प्रोगास (प्रोगास) 2/1 अण्णमण्णस्स (अण्णमण्ण) 6/! वि मेलता (मेल) वकृ 1/2 वि= यद्यपि य= तथा णिच्च (अ) = सदैव सग (सग) 2/1 वि सभाव (समाव) 2/1 रण (अ) = नही विजहति (विजह) व 312 मक । 1 गमन अर्थ मे द्वितीया का प्रयोग है । 2 कभी-कमी द्वितीया के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हेम-प्राकृत व्याकरण, 3-134) । 19 अण्णोण्ण = एक दूसरे को एक दूसरे मे । पविसता प्रवेश करते हुए। दिता = देते हुए । प्रोगासमण्णमण्णस्स [(ोगास)+ (अण्णमण्णस्स)] = स्थान (को), एक दूसरे को । मेलता = सम्पर्क करते हुए । वि= यद्यपि । 52 आचार्य कुन्दकुन्द

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