Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 81
________________ 51 देहा= शरीर । वा = एव । दविणा = घनादि वस्तुएँ । सुहदुक्खा = सुख और दुख । वाऽध = वा+अघ = एव, अच्छा तो । सत्तमित्तजणा = शत्रु, मित्रजन । जीवस्स% व्यक्ति के । ण = नही । सति % रहते है । धुवा = स्थायी । धवोवोगप्पगो = ध्रुव+उवप्रोगप्पगो = स्थायी, उपयोगमयी । अप्पा आत्मा। 52 एव=इस प्रकार गाणप्पाण (णाणप्पाण) 2/1 वि दसणभूद [(दसण) (भूद) भूक 2/1 अनि] अदिदियमहत्य [(अदिदिय)-(महत्थ) 2/1] धुवमचलमणालब [(धुव) + (अचल)+प्रणालब)] धुव (धुव) 2/1 वि अचल (अचल) 2/1 वि प्रणालब (अणालब) 2/1 वि मण्णेऽह [मण्णे)+ (प्रह)] मण्णे (मण्णे) व 1/1 सक अनि अह (अम्ह) 1/1 स अप्पग (अप्प) 2/1 'ग' स्वार्थिक प्रत्यय सुद्ध (मुद्ध) 2/1 वि । 52 एव = इस प्रकार । णाणप्पाण = ज्ञानस्वभाववाला । दसणभूद %D दर्गनमयो । अदिदियमहत्य = अतीन्द्रिय, श्रेष्ठ पदार्थ । धुवमचलमणालब = घुव+अचल+अणालव = स्थायी, स्थिर, पालवनरहित । मण्णेऽह = समझता हूँ, मै । अप्पग-प्रात्मा को । सुद्ध = शुद्ध । 53 प्रादा (पाद) 1/1 णाणपमाण [(णाण)-(पमाण) 1/1] णाण (णाण) 1/1 णेयप्पमाणमुद्दिट्ट [(णेय)+ (प्पमाण) + (उद्दिट्ठ)] [(णेय) विघि कृ अनि-(प्पमाण) 1/1] उद्दिट्ठ (उद्दिढ) भूकृ 1/1 अनि णेय (णेय) विधि कृ 1/1 अनि लोगालोग [(लोग)+(अलोग)] [(लोग)(अलोग) 1/1] तम्हा (प्र) = इसलिए णाण (गाण) 1/1 तु (अ) = तो सव्वगय [(सन्व) वि-(गय) भूक 1/1 अनि] । 33 प्रादा = आत्मा । णापमाण-ज्ञान जितना । यप्पमाणमुद्बिठ्ठ =णेय+ प्पमाण+उद्दिछ = ज्ञेय, जितना, कहा गया । णेय = ज्ञेय । लोगालोग = लोग+अलोग% लोक, अलोक । तम्हा = इसलिए । णाण = ज्ञान । तु (अ) = तो । सन्वगय = सब जगह विद्यमान । 54 गाण (णाण) 1/1 अप्पत्ति (अप्प)+ (इति)] अप्प (अप्प) 1/1 इति (अ) = इस प्रकार मदं (मद) भूक 1/1 अनि वट्टदि (वट्ट) व 3/1 अक णारण (णाण) 1/1 विणा (अ) = बिना ण (अ) = नही अप्पाण' (अप्पाण) 2/1 तम्हा (अ) = इसलिए णाण (णाण) 1/1 अप्पा (अप्प) 1/1 अप्पा (अप्प) 1/1 णाण (णाण) 1/1 व (अ) = तथा अण्ण (अण्ण) 1/1 वि वा (अ) = भी। 65 द्रव्य-विचार

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