Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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49 जो (ज) 1/1 सवि एव (अ) = इस प्रकार जारिणत्ता (जाण) सक झादि
(झा) व 3/1 सक पर (पर) 2/1 वि अप्पग (अप्प) 2/1 स्वार्थिक 'ग' प्रत्यय विसुद्धप्पा [(विमुद्ध) वि-(अप्प) 1/1] सागाराणागारो [(सागार) + (अणगारो)] [सागार)-(अणगार) 1/1] खवेदि (ग्वव) व 3/1 सक सो (त) 1/1 मवि मोहदुग्गठिं [(मोह)-दुग्गठि)
2/1] । 49 जो-जो । एव = इस प्रकार । जारिणत्ता समझकर । झादि = ध्यान
करता है। पर = उच्चतम (को) । अप्पग = प्रात्मा को । विसुबप्पा%D शुद्धात्मा । सागाराणगारो= सागार+अणगारो= गृहस्थ व मुनि । सवेदि = नष्ट कर देता है । सो वह । मोहदुग्गठि = मोह की जटिल गांठ को ।
50 रगाह [(ण)+अह)] ण = नही अह (अम्ह) 1/1 स होमि (हो) व
3/1 अक परेसि (पर) 6/2 वि मे (अम्ह) 6/1 म परे (पर) 2/2 वि सन्ति (अस) व 3/2 अक णाणमहमेषको [(णाण)+ (ग्रह)+ (एक्को)] णाण (णाण) 1/1 अह (अम्ह) 1/1 म एक्को (एक्क) 1/1 सवि इदि (अ) = इस प्रकार जो (ज) 1/1 सवि झायदि (झाय) व 3/1 सक झाणे (झाण) 1/1 सो (त) 1/1 मवि अप्पाण (अप्पाण) 2/1 हवदि (हव) व 3/1 अक झादा (झाउ) 1/1 वि । 1 कभी-कभी प्रथमा के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है ।
(हेम-प्राकृत व्याकरण, 3-137 वृत्ति)। 50 णाह = ण+ अह = नही, मै । होमि = हूँ । परेसि = पर के । ण = नही।
मे = मेरे। परेपर को→ पर । सन्ति = हैं । पाणमहमेक्को णाण+ अह +एक्को = ज्ञान, मै, केवल मात्र । इदि = इस प्रकार । जोजो । झायदि = ध्याता है। झाणे = ध्यान मे । सो= वह । अप्पाण - प्रात्मा को । हवदि = होता है । झादा = ध्याता।
51 देहा (देह) 1/2 वा (अ) = एव दविणा (दविण) 1/2 सुहदुक्खा
[(सुह)-(दुक्ख) 1/2] वाऽघ [(वा)+ (अघ)] वा (अ) = एव अध (अ) = अच्छा तो सत्तुमित्तजणा [(सत्तु)-(मित्त)-(जण) 1/2] जीवस्स (जीव) 6/1 ण (अ) = नही सति (अस) व 3/2 अक धुवा (धुव) 1/2 वि धुवोवनोगप्पगो [(धुव) + (उवप्रोगप्पगो)] [(धुव) वि-(उवप्रोगप्पगो) 1/1 वि] अप्पा (अप्प) 1/11
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आचार्य कुन्दकुन्द

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