Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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[(जिण)-(समय) 7/1] काया (काय) 1/2 हु (अ)=ही बहुप्पदेसत्त
(बहुप्पदेसत्त) I/II 14 एदे- ये । छद्दन्वाणि = छ द्रव्य । काल = काल को । मोत्तूण = छोडकर ।
अत्यिकाय = अस्तिकाय । णिहिट्ठा-कहे गये है। जिणसमये-जिन-सिद्धान्त
मे । काया काय । हुम्ही । बहुप्पदेसत्त = बहुप्रदेशपना । 15-16 संखेज्जासखेज्जा-णतपदेसा [(सखेज्ज)+ (असखेज्ज) + (अणत) +
(पदेसा)] [(सबेज्ज)-(अमम्वेज्ज)-(अणत)-(पदेस) 1/2] हवति (हव) व 3/2 अक मुत्तस्स (मुत्त) 6/1 धम्माधम्मस्स [(धम्मा)+ (अधम्मस्स)] [(धम्म)-(अधम्म)) 6/1] पुणो (अ) = तथा जीवस्स (जीव) 6/1 प्रसखदेसा (प्रसखदेस) 1/2 हु (अ)- पादपूरक । लोयायासे (लोयायाम) 7/1 ताव (अ) = उतने इदरस्स (इदर) 6/1 वि प्रणतयं (अणतय) 1/1 वि य स्वार्थिक हवे (हव) व 3/2 अक देसा (देम) 1/2 कालस्स (काल) 6/1 ण (अ)-नही कायत्त (कायत्त) 11 एगपदेसो [(एग)-(पदेस) 1/1] हवे (हव) व 3/1 अक जम्हा
(म) = चूकि । 15-16 संखेज्जासखेज्जा-णतपदेसा सख्येय, असस्येय, अनन्त प्रदेश । हवति =
होते हैं। मुत्तस्स = मूर्त (पुदगल) (द्रव्य) के । धम्माधम्मस्स = धर्म के, अधर्म के । पुरणो- तथा । जीवस्स - जीव के । असखदेसाप्रसस्य प्रदेश। लोयायासे = लोकाकाश मे । ताव उतने- इतने ही । इदरस्स-विरोधी (अलोकाकाण) मे । अणतय = अनन्त । कालस्स = काल के । ए नहीं। कायत = कायता । एगपदेसो- एक प्रदेश । हवे होता है । जम्हा =
चूकि । 17 मागासमणुणिविट्ठ ।(पागास)+ (अणु)+ (णिविट्ठ)] अागास
(मागास) 2/1 [(अणु)-(णिविट्ठ) भूक 1/1 अनि] मागासपवेससण्णया [(आगास)-(पदेस)-(सण्णा) 3/1 अनि] भणिव (ण) भूक 1/1 सम्वेसि (सन्व) 6/2 सवि च (अ) = पादपूरक अणूण (अणु)6/2 1 कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीय का प्रयोग पाया जाता है
(हेम-प्राकृत व्याकरण, 3-137)। 2 कभी-कभी द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है
(हेम-प्राकृत व्याकरण, 3-134)।
द्रव्य-विचार

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