Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 74
________________ 33 उद्दसमसयमक्खियमधुकरभमरा= मच्छर, डाम, मकापी, मधुमक्खी, भौरा। पतगमादीया = पतग+यादीया पतगा यादि । स्प%प को । रसरस को । च = और । गध = गध को । फास = स्पर्ण को । पुरण = पादपूरक । तेवे । वि (अ)- प्रत । जाणति = जानते है। 34 सुरणरणारयतिरिया [(सुर)-(णर)-(णारय) वि-(तिरिय) 1/2] वण्णरसप्फासगघसद्दण्हू [(वण्ण)-(ग्म)-(प्फास)-(गध)-(सह)(णहु) 1/2] जलचरयलचरसचरा [(जलचर)-(थलचर)-(खचर) 1/2] वलिया (वल) भूक 12 पचेदिया [(पच)-(दिय) 1/2] वि] जीवा (जीव) 1/2 । 34 सुरणरणारयतिरिय = देव, मनुप्य, नारकी, तिर्यञ्च । वण्णरसफासगध सद्दण्हू - वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्द के जाननेवाले । जलचरयलचरखचरा जल मे गमन करनेवाले, स्थल पर गमन करनेवाले, आकाश मे गमन करनेवाले । वलिया = गतिशील । पचेदिया = पचेन्द्रिय । जीवा = जीव । 35 जह = जिस प्रकार पउमरायरयण [(पउमराय)-(रयण) 1/1] खित (खित्त) भूक 1/! अनि सोर (खीर) 2/1 पभासयदि (पभामयदि) व 3/1 सक अनि खीर (खीर) 2/1 तह (अ) = उसी प्रकार देही (देहि) 1/1 देहत्यो (देहत्य) 1/1 सदेहमत्त [(स)-(देह)-(मत्त) 2/1] 1 कभी-कभी द्वितीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी के अर्थ में भी किया है । (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137)। 35 जह- जिस प्रकार । पउयरायरयण = पद्मराग, रत्ल । खित्त = डाला हुआ । खीर = दूध को दूध मे । प्रभासयदि = प्रकाशित करता । खोर % दूध को । तह = उसी प्रकार । देही = आत्मा। देहत्यो देह मे स्थित। सदेहमत्त = स्वदेह मात्र को । पभासयदि = प्रकाशित करता है । 36-37-38 जो (ज) 1/1 मवि खलु (अ) = सचमुच, संसारत्यो (ससारत्य) 1/1 वि जीवो (जीव) 1/1 तत्तो (अ) = उस कारण से दु (अ) =ही होरि हो व 3/1 अक परिणामो (परिणाम) 1/1 परिणामादो (परिणाम)511 कम्म (कम्म) 1/1 कम्मादो (कम्म) 5/1 होदि (हो) व 3/1 प्रक गदिसु (गदि) 7/1 अनि गदी (गदि) 1/11 58 आचार्य कुन्दकुन्द

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