Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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न हि (अ) = क्योकि सन्भाव (सव्भाव) 1/1 वावारो (वावार) 1/1
णत्यि (अ) = न विसयत्य (विसयत्य) चतुर्थी अर्थक 'अत्य' अव्यय । 39 जेसि = जिन के । विसयेतु = विपयो मे । रदी = रस । तेसि = उनके ।
दुक्ख = दु ख । वियाण = समझो । सम्भाववास्तविकता । जदि = यदि । त= वह । एन । हि = क्योकि । सम्भाव= वास्तविकता । वावारो= प्रवृत्ति । पत्थिन । विसयत्य = विपयो के लिए।
40 तिपयारो [(ति) वि-(पयार) 1/1] सो (त) 1/l सवि अप्पा
(अप्प) 1/1 परभितरवाहिरो [(पर)+ (अन्मितर)+ (वाहिरो)] [(पर) वि-(अम्भितर) वि-(वाहिर) 1/1 वि] हु (अ) = निस्सन्देह हेऊण (हेउ) 6/2, तत्य (अ) = उस अवस्था मे परो (पर) 1/1 वि झाइज्जइ (झा) व कर्म 3/1 सक अंतोवायेण [(अत)+ (उवायेण)] अंत (अ) = आतरिक उवायेण (उवाय) 3/1 चयहि (चय) विधि 2/1 सक बहिरप्पा (वहिरप्प) 2/1 अपभ्रंश । 1 कभी-कभी तृतीया के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया
जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-134)। 40 तिपयारो-तीन प्रकार का । सो वह । अप्पा=आत्मा । परभितर
वाहिरो पर+अभिवर+वाहिरो= परम, आन्तरिक, वहिर (आत्मा)। हु = निस्सन्देह । हेऊण = कारणो के→ कारणो से । तत्थ = उस अवस्था मे। परो= परम । झाइज्जइ = ध्याया जाता है। अतीवायेण = आतरिक के
साधन से । चयहि = छोडो । बहिरप्पा वहिरात्मा को। 41. अक्खाणि (अक्ख) 1/2 बहिरप्पा (वहिरप्प) 1/1 अतरप्पा (अतरप्प)
1/1 हु (अ) = ही अप्पसकप्पो [(अप्प)-(सकप्प) 1/1] कम्मकलकविमुक्को [(कम्म)-(कलक-(विमुक्क) 1/1 वि] परमप्पा
(परमप्प) 1/1 भण्णए (भण्ण) व कर्म 3/1 सक अनि देवो (देव) 1/1 | 41 अक्खाणि - इन्द्रियाँ । बहिरप्पा वहिरात्मा । अतरप्पा-अतरात्मा ।
हुम्ही । अप्पसकप्पो आत्मा की विचरणा । कम्मकलकविमुक्को = कर्मकलक से मुक्त । परमप्पा- परम आत्मा। भण्णए = कहा गया ।
देवो देव । 42 आरहवि (आरह) सकृ अपभ्रश अतरप्पा (अतरप्प) 2/1 अपभ्रश
वहिरप्पा (वहिरप्प) 2/1 अपभ्रश छडिऊण (छड) सकृ तिविहेण
प्राचार्य कुन्दकुन्द

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