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14 जिन-सिद्धान्त मे ये छ द्रव्य (हैं) । (उनमे से) काल को छोडकर
(शेष) अस्तिकाय कहे गये (हैं) । (जो) बहुप्रदेशपना (है), (वह)
ही 'काय' (समझा जाना चाहिए)। 15-16 मूर्त (पुद्गल) (द्रव्य) के ससख्येय, असख्येय तथा अनन्त प्रदेश
होते हैं । धर्म के, अधर्म के तथा जीव के असख्य प्रदेश (होते हैं)। लोकाकाश मे (भी) इतने ही प्रदेश (है), विरोधी (अलोकाकाश) मे अनन्त प्रदेश होते है । काल के कायता नही है, क्योकि (उसके)
एकप्रदेश (ही) होता है। 17 ('प्रदेश' की धारणा को समझाने के लिए कहा गया है कि) (जहाँ)
आकाश मे (एक) अणु स्थित कहा गया (है), (वहाँ) आकाश का एक प्रदेश (है)। (वह उतना आकाश) (प्रदेश) नाम के द्वारा (कहा जाता है)। वह (आकाश का एक प्रदेश) सभी
अणुओ को स्थान देने के लिए समर्थ होता है। 18 जिसके प्रदेश नही है (या) (जिसके) वस्तुत प्रदेश मात्र भी
जानने के लिए (वर्तमान नही है), वह द्रव्य अस्तित्व से विपरीत
हुअा है, (इसलिए) (तुम) (उसको) शून्य समझो । 19 यद्यपि (सभी) (द्रव्य) एक दूसरे मे प्रवेश करते हुए (स्थित है),
एक दूसरे को स्थान देते हुए (विद्यमान हैं), तथा (एक दूसरे से) सदैव सम्पर्क करते हुए (रहते हैं) (तो) (भी) (वे) निज स्वभाव
को नही छोडते है। 20 जीव चेतनामय होता है, (वह) ज्ञान-गुण की विशेषता लिए हुए
(रहता है), (अपने विकास मे) समर्थ (होता है,) (शुभ-अशुभ क्रियाओ का) कर्ता तथा (सुख-दुख का) भोक्ता (होता है), देह जितना (रहता है), इन्द्रियो द्वारा उसका कभी भी ग्रहण नही (होता है) तथा (वह) (शुभ-अशुभ) कर्मों से युक्त (रहता है)।
21 जो निस्सन्देह चार प्राणो से जीता है, जीवेगा, तथा विगत काल
मे जिया (है), वह जीव (कहा गया है) । और (वे) चार प्राण (है)- बल, इन्द्रिय, आयु और श्वास (सॉस)।
द्रव्य-विचार