Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 39
________________ 71 आसक्त (व्यक्ति) कर्मों को बाँधना है, श्रासक्ति से रहित व्यक्ति कर्मो से छुटकारा पा जाता है । निस्सन्देह यह जीवो के (कर्म) वध का सक्षेप है । (तुम) (इसे ) समझो | 72 जो (व्यक्ति) इन्द्रियादि का विजेता होकर उपयोगमयी ( ज्ञानमयी) आत्मा को ध्याता है, वह कर्मों के द्वारा नही रगा जाता है । (तो) प्राण उसका अनुसरण कैसे करेंगे ? 73 यदि ज्ञाता ज्ञेय ( जानने योग्य पदार्थ ) मे कभी रूपान्तरित नही होता है, (तो) उसका ज्ञान कर्मों के क्षय से उत्पन्न (समझा जाना चाहिए ) । इसलिए जिनेन्द्रो ने उसे ही कर्मों को क्षय करता हुआ (व्यक्ति) कहा ( है ) 74 आत्मा जिस शुभ-अशुभ भाव को करता है, वह उसका निस्सदेह कर्ता होता है, वह (भाव) उसका कर्म होता है, (तथा) वह ग्रात्मा ही उसका भोक्ता होता है । 75 आत्मा जिस भाव को (अपने मे) उत्पन्न करता है, वह उस (भाव) कर्म का कर्ता होता है । जानी का ( यह भाव ) ज्ञानमय (होता है) और अज्ञानी का ( यह भाव ) अज्ञानमय होता है । 76-77 जैसे कनकमय वस्तु से कुण्डल आदि वस्तुएँ उत्पन्न होती है ( बनती है) और लोहमय वस्तु से कडे ग्रादि उत्पन्न होते है ( बनते है ), वैसे ही अज्ञानी के अनेक प्रकार के अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होते है तथा ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय होते है । 78 निश्चयनय के ( अनुसार ) इस प्रकार ( कहा गया है कि ) श्रात्मा ग्रात्मा (अपने भावो) को ही करता है तथा आत्मा आत्मा (अपने भावो) को ही भोगता है, उसको ही (तुम) जानो । द्रव्य- विचार 23

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